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( ३२ ) १३. निश्चयनय व्यवहारनय
जब तक हम अपने आत्मा को न पहिचानेंगे तब तक हम श्रात्मा का ज्ञान व विश्वास नहीं कर सकते । आत्मा को शान निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों से करना चाहिए। जो पदार्थ का असली स्वभाव वर्णन करे बह निश्चयनय है । जो पदार्थ को किसी कारण से भेद रूप कहे या उसकी अशुद्ध अवस्था का वर्णन करे वह व्यवहारनय है। एक रई का बना हुआ रूमाल मैला हो गया है। जो निश्चय नय से यह जानता है कि रूमाल रुई का बना खभाव से मफेद है और व्यवहारनय से जानता है कि यह मैल चढने से मैला है वही रूमाल को धोकर साफ कर सकता है । उसी
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थ बोध निमुखः प्रायः सोऽपि संसारः॥ व्यबहार निश्चयौया प्रवुध्य तत्वेन भवति मध्यस्था। प्राप्नोति देशनायाः सपवफल मविकल शिष्यः ॥
(पुरुषार्थ सिद्धथु पाय :) भावार्थ-निश्चयनय सत्य असली पदार्थको व व्यवहारनय अभूतार्थ खरूप को बताती है अर्थात् जो दूसरे निमित्तोसे द्रव्यका विभाव परिणाम हुआ है, उसको व्यवहारनय बताती है । ये संसारी प्राणी प्रायः सच्चे असली वस्तु के ख. रुप को नही जानते हैं। जो कोई व्यवहार निश्चय दोनों को ठीक ठीक समझ कर वीतरागी हो जाता है वही शिष्य जिन वाणो के पूर्ण फल को पाता है।