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(३१) होना है। इसी को रत्नत्रय धर्म कहते हैं । बिना रुचि के ज्ञान पक्का नही होता । विना पक्के ज्ञान के पक्का पाचरण नहीं होता । पर्वत के शिखर पर जाने के मार्ग का श्रद्धान व ज्ञान होने पर जव उस पर चलेगे तव ही शिखर पर पहुँच सकेंगे। तीनो के विना कोई कार्य नही हो सकता है। तव मोक्ष की सिद्धि भी नही हो सकती है।
इस रत्वत्रय के दो भेद है-(१) निश्चय रत्नत्रय (२) व्यवहार रत्नत्रय । अपने ही आत्मा के असली स्वभाव का श्रद्धान, ज्ञान तथा उसमें लीनता निश्चय रत्नत्रय है तथा जीवादि सात तत्वों का व सच्चे देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान वज्ञान तथा साधु या श्रावक गृहस्थ का हिंसादि पापो से छूटना व्यवहार रत्नत्रय है । मोक्ष के लिए साक्षात् साधन निश्चय रत्नत्रय है जब कि उसका निमित्त या सहायक साधन व्यवहार रत्नत्रय है । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्ग ॥१॥
(तत्वार्थसूत्र १ श्र.) + आयारादी गाणं जीवादी दलणं च विराणेयं । छज्जीवाणं रक्खा भणदि चरित्तं तु ववहारो ॥२४॥ प्रादाखु मज्भणाणे आदा मे दसरो चरित्तेय । श्रादा पञ्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे || २६५ ॥
[समयसार]] भावार्थ-जीवादि का श्रद्धान, आचागंगादि का ज्ञान व पृथ्वी आदि छः कार्यों की रक्षा, व्यवहार रत्नत्रय है। श्रात्मा ही का ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र व वही त्याग रूप है संवर रूप है, योग रूप है,ऐसा स्वानुभव निश्चय रत्नत्रय है।