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(३४ ) (३)अवधिज्ञान-जिससे आत्मा स्वयं द्रव्य क्षेत्रादि को मर्यादा से रूपी पदार्थों और संसारी जीवों को, भूत और भविष्य के व दूर क्षेत्र को जान लेता है।
(४)मनःपर्ययज्ञान-जिससे आत्मा स्वयं दूसरे के मन में तिष्ठ, किन्ही भी सूक्ष्म रूपी-पदार्थों को जान लेता है।
(५) केवलज्ञान-जिससे सर्व पदार्थों की सर्व पर्यायों को एक समय में बिना क्रम के प्रात्मा जानता है।
ये पिछले तीन छान प्रत्यक्ष हैं, अर्थात् आत्मा बिना पर की सहायता के जानता है।
नयों के बहुत भेद हैं । लोक में व्यवहार चलाने के लिये सात नय प्रसिद्ध हैं :
(१) नैगमनय-जो भून भविष्यत की बातको संकल्प करके वर्तमान में कहे । जैसे कहना कि आज श्री महावीर स्वामी मोक्ष गये।
(२) संग्रहनय-जो एक बात से उस जातिके बहुत . से पदार्थों का ज्ञान करा दे । जैसे जीव चेतना मय है, इस में , सर्व जीवों का कथन हो गया।
(३)व्यवहारनय-संग्रहनयसे जो कहा उसके भेदों का कहना जिससे हो । जैसे जीव संसारी और मुक्त दो तरह
(४) ऋजुसूत्रनय-जो वर्तमान अवस्था को कहे। जैसे राजा को राजा कहना।
मति श्रुतावधि मनःपर्यय केवलानि शानम् ॥आये परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ (तत्वार्थ सूत्र अ०१)