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________________ ( २३ ) भावार्थ-एक बहुत वडा गडवड़ मय जड़(पुद्गल )का पिण्ड है जो बहुत ही उष्ण है व करोडों मीलों का उस का व्यास है। यह एक मेघ समूह सदृश शक्तियों का समूह है, यह घूमते २ दूसरा समूह होकर फिर सूर्य का परिकर हो जाता है, फिर उसीसे हैड्रोजन वायु, लोहा व दूसरे पदार्थ हो जाते हैं । फिर कुछ मिलाप होते २ प्रथम जो जीवन शक्ति प्रकट होती है, इस को प्रोटोप्लैम कहते है। इसी ले वनस्पति काय बनती है, फिर उन्नति करते करते वही पशु फिर यही मनुष्य हो जाता है। आत्मा मनुष्य की दशा से पशु या वनस्पति की अवस्था में कभी नहीं गिरता है। इस पर जैन दर्शन कहता है कि जड से चेतन शक्ति नही पैदा हो सकती है, क्योंकि उपादान कारणके समान कार्य होता है । प्रात्मा स्वतन्त्र नित्य पदार्थ है तथा जब मनुष्य अधिक पाप करे तब क्यों न वह पशु हो जावे। जगत में हर एक आत्मा अपने भावों के अनुसार उन्नति वा अवनति दोनों करता रहता है। (8) आर्य समाजी-यह भी ईश्वर को फलदाता व कर्ता मानते हैं । मुक्ति होने पर भी जीव अल्पज्ञ रहता है। वह फिर ससार में आता है। जीव परमात्मा के सदृश है, ऐसा नहीं मानते है । (देखो सत्यार्थप्रकाश समुल्लास)। "मुक्तिमें जीव विद्यमान रहता है। जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है, उसी मे मुक्त जीव विना रुकावट के विज्ञान प्रानन्द पूर्वक स्वतन्त्र विचरता है" ( २५२ पत्र) "जीव मुक्ति पाकर पुन संसारमे आता है" (२५४पृष्ठ)
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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