________________
( २४ )
"परमात्मा हमें मुक्ति में श्रानन्द भुगाकर फिर पृथ्वी पर माता पिता के दर्शन कराता है" ( २५५ पृ० )
"महाकल्प के पीछे फिर संसार में श्राते है । जीव की सामर्थ्य परिमित है । जीव अनन्त सुख नहीं भोग सकते " ( २५६ पृष्ठ ) | जीव अल्पश है । ( पृ० २६२ )
" परमेश्वर के आधार से मुक्ति के श्रानन्दको जीवात्मा भोगता है। मुक्ति में श्रात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सर्व सन्निहित पदार्थों का ज्ञान यथावत् होता है" ( पृ० २६७ ) ।
|
जैन दर्शन कहता है कि ऊपर के कथनों में परस्पर विरोध है । एक स्थान में आत्मा को परिमित ज्ञानी व दूसरे स्थान में पूर्ण ज्ञानी व निर्मल कहा है । श्रात्मा स्वभाव से परमात्मा के तुल्य है । कर्म बन्ध के कारण कमी है: उस कमीकं जाते ही वह परमात्मा के समान स्वतन्त्र हो जायगा ! परमास्मा बिना किसी दोष के मुक्त जीव को क्यों कभी संसार में भेजता है । यदि भेजता है तो जीव कर्मबन्ध सहित रहेगा. मुक्त नही कहा जा सकेगा । परमात्मा निर्विकार है, उस में संसार प्रपंच करने का विकार नहीं हो सकता है ।
(१०) पारसी या जरथोश्ती धर्म - इस मतकी मान्यता हिन्दुओं के उस मत से मिलती है जो मात्र एक ईश्वर को ही नादि कृत्रिम मानते है व उस से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं। यह मत जड़ और चेतन दोनों को मानता है, पर उनकी उत्पत्ति एक ईश्वर से मानना है । जीव पाप पुण्य का फल मरण पीछे भोगता है । अन्त में उसी ईश्वर में समा जाता है । यह लोग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु को इसलिये