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( १६ ) नित्य त्वैकान्त पक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्वप्रमाणं क्वतन्फलम् ॥ ३७ ॥
[आप्तमीमांसा] भावार्थ-यदि सर्वथा नित्य माना जायगा तो उसमें विकार नही हो सकते । तव कर्ता पना आदि कारक न होंगे, न उसमें यथार्थ ज्ञान होगा, न उसका फल होगा कि यह त्यागो और यह ग्रहण कगे। जैन दर्शन ईश्वर को सदा आनन्दमय और परका अकर्ता मानता है। जीव ही स्वयं पाप पुण्य बांधते व स्वय ही मुक्त होते है, किसी ईश्वर की कृपा से नहीं।
(४) नैयायिकदर्शन और (५) वैशेषिकदर्शन ये दोनों प्रायः एक से है । दोनों ईश्वर को कमों का फलदाता मानते हैं। "ईश्वरः कारणं पुरुषकाफल्य दर्शनात्॥ १६॥"
[न्यायदर्शन पृ० ४१७ सं० १९५४ में छपा] भावार्थ-पुरुषों के कर्मों का अफल होना देखने व जानने से ईश्वर कारण है। ईश्वर के आधीन कर्मका फल है। 'अशो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख दुःखयो । ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गवा श्वभ्रमेव वा ॥६॥"
मुक्तात्मानां विद्यश्वरादीनाञ्च यद्यपि शिवत्वमस्ति तथापिपरमेश्वर पारतंत्र्यात्स्वातंत्र्यंनास्ति ।
[पृ० १३४-१३५ सर्वदर्शन संग्रह ] । भावार्थ-यह जन्तु अज्ञानी है । इनका सुख दुःख स्वाधीनता रहित है । ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग या नर्क में जाते हैं । मुक्ति प्राप्त जीव व विद्या के ईश्वर शिव रूप है, तथापि परमेश्वर के वश है, वे स्वतन्त्र नहीं है।