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( २० ) अनच्छिन्न सद्भावं वस्तु यद्देशकालतः । तन्नित्यं विभुचेच्छन्तीत्यात्मनो विभु नित्यतेनि ॥
[१६ सर्व दर्शन संग्रह पृ० १३६] भावार्थ-किसी देश व कालमें आत्मा निरोधरूप नहीं है। आत्मा व्यापक है और नित्य है।
"विभवान् महानाकाशस्नथाचात्मा" २२ १०७ (वैशेषिकदर्शन पृ० २४७ छपा १६४६)
भावार्थ-यह आकाश महान् विभु है वैसा ही यह श्रात्मा है।
जैन दर्शन कहता है कि यदि संसारी जीवों को कर्म का फल देना ईश्वर के आधीन है तो उनको कुमार्गगमन से रोक. ना भी उसके श्राधीन होना चाहिये। जब ईश्वर सर्वश, सर्व व्यापी, दयालु व सर्वशक्तिमान् है, तो उसे अपनी प्रजा को कुपथ से अवश्य रोक देना चाहिये जैसे देश का राजा शक्ति के अनुसार ज्ञान होने पर दुरों का निग्रह करता है, परन्तु जगत में ऐसा नहीं देखा जाता। इससे उसकी प्रेरणा कर्म के फल में आवश्यक नहीं है। , श्रात्मा यदि सर्वथा नित्य हो तो उसमें विकार नहीं हो सकते । विकार विना राग द्वेष नही हो सकते, न रागद्वेष से छूटकर मुक हो सकता है। सर्व व्यापक प्रात्मा हो तो स्पर्श का शान सर्वस्थानों का एक काल में होना चाहिये। सो होता नहीं; किन्तु शरीर मात्र के स्पर्श का शान एक काल में होता है, इससे आत्मा शरीर प्रमाण है। यदि आत्मा मुक्त होगया तो फिर उसका ईश्वर के परतंत्र होना संभव नहीं है। मुक्त का अर्थ स्वाधीन है।