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________________ "नानन्दाभिव्यक्तिमुक्तिनिधर्मत्वात्" (७४ १०५) भावार्थ-आत्मा में आनन्द धर्म नहीं है, इससे आनन्द की प्रगटता मोक्ष नहीं है। जो ईश्वरको भी मानते है ऐसे पातञ्जलि-मान्य सांख्य ईश्वर को ऐसा कहते हैं कि ____ "परमेश्वरः क्लेश कर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष स्वेच्छया निर्माणकायमधिष्ठाय लौकिक वैदिक सम्प्रदाय प्रवर्तकः संसारांगारतप्यमानानां प्राणभृतामनुप्राहकश्च" (सर्व दर्शन संग्रह पृ० २५५) भावार्थ-परमेश्वर क्लेश, कर्म, विपाक. आशय से स्पृष्ट नही होता। वह स्वेच्छा से निर्माण शरीर में अधिष्ठान कर के लौकिक और वैदिक सम्प्रदाय की वर्तना करता है; एवं संसाररूप अङ्गार से तप्यमान प्राणीगण के प्रति अनुग्रह वितरण करता है। दोनों ही आत्मा को अपरिणामी मानते है"पुरुषस्यापरिणामित्वात्" (१% पाद ४ योग दर्शन पातञ्जलि १६०७ में छपा)। जैनसिद्धान्त कहता है कि यदि आत्मा अपरिणामी अर्थात् कूटस्थनित्य हो व कर्ता न हो तो उसके मंसार व मोक्ष नहीं हो सकता नथा जो करेगा वही भोगेगा। किसान खेती करके उस का फल कुटुम्ब-पालन भोगता है । राजा किसानों की रक्षा करके उसका फल राज्य-मुख पाता है। जड़ पदार्थ में शांति व क्रोधादि भाव नहीं हो सकते। ये सब चेतन के ही भाव है। जो शुद्ध ईश्वर प्राशय रहित है उसमें शरीर धार कर कृपा करने का भाव नही हो सकता है। कहा है
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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