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( १७ ) तंत्र व परमाणु आदि अचेतनकी सत्ता भिन्न मानता है। अद्वैत रूप एक ब्रह्म मानने मे ग्रह दोष देता है।
"कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत् । विद्या विद्या द्वयं न स्यात् वध मोक्ष द्वयं तथा ॥२५॥"
(आप्तमीमांसा) भावार्थ-यदि वह्म नित्य व तृप्त है, तब उससे कोई कार्य नही होसक्ता, यदि कार्यहो तो विरोधी पदार्थ नहीं बन सक्ते, अर्थात् शुभ, अशुभकर्म, सुख दुःखरूप फल, यह लोक परलोक, विद्या अविद्या, बंध व मोक्ष कुछ नहीं हो सकते । आनन्दमय होने से उसमें मैं अनेक रूप हो जाऊँ, यह भाव नहीं होसका। दो वस्तु होने से ही परस्पर बंध व उनका छूटना या मुक्त होना बन सकता है एक ही शुद्ध पदार्थ मे असम्भव है ।
(२) सांख्य दर्शन और (३) पातञ्जलि दर्शनइनके दो भेद है। एक वे,जो ईश्वर की सत्ता नही मानते हैं: आत्माको निर्लेप अकर्ता व जड प्रकृति को ही कर्ता मानते है। अहंकार, शान्ति. बुद्धि प्रादि आत्मिक भावों को भी सत्त्व रज, तम तीन प्रकृतिके विकार मानते है, परन्तु फल भोक्ता आत्मा को मानते हैं । ( देखो सांख्य दर्शन कपिल छपा सं० १९५७) "अकर्तुरपि फलोपभोगो अनादि वत्" (१०५ ०१)
भावार्थ-प्रकर्ता पुरुष है तो भी फल भोगता है. जैसे किसान अन्न पैदा करता है राजा भोगता है।
__ "अहंकारः कर्ता न पुरुषः (५४ अ०६)
अहंकार जो प्रकृति का विकार है वह कर्ता है आत्मा फर्ता नही है।