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०. वेदान्तादि जैन मतों की मान्यताएं और उनका जैनियों की मान्यताओं से अन्तर
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( १ ) वेदान्त मत - इस मनका सिद्धांतहै कि यह दृश्यजगत व दर्शक दोनो एक है । ब्रह्मरूप जगत हैं । ब्रह्म ही से पैदा है और ब्रह्म ही में लय हो जायेगा । (देखां वेदान्तदर्पण व्यास कृत भाषा प्रभुदयाल, छपा वेकटेश्वर सं० १६५६ ) ब्रह्म का लक्षण हैं " जन्माद्यस्य यत इति
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(सूत्र २ श्र० २) भावार्थ - जन्म स्थिति नाश उससे होना है। " नित्यस्सर्गन्नस्सर्गगतो नित्यतृप्त शुद्धबुद्ध मुक्तम्वभावां विज्ञानमानन्द ब्रह्म ( पृ० ३०)
भावार्थ- ब्रह्म नित्य है, सर्वज्ञ है, सर्व व्यापी है सदा तृप्त हैं, शुद्धबुद्ध मुक्त स्वभाव है। विज्ञानमयी है, आनन्दमई है। " श्राकाशस्तलिंगात् " ( सूत्र २२ ० १ )
भावार्थ - श्राकाश ब्रह्म है - ब्रह्म का चिन्ह होने से । "द्युभ्वानद्यायतनं स्वशब्दात् " ( १ पाद ३) भावार्थ- पृथ्वी जिस के आदि में है, ऐसे जगत का आयतन है - श्रात्म-वाचक शब्द होने से ।
"कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः" (वेदान्त परिभाषा परि० ७ )
भावार्थ - यह जीव कार्य रूप उपाधि है, कारणरूप उपाधि ईश्वर है ।
जैन सिद्धान्तमुक्तात्मा को परंब्रह्म, जगत का अकर्त्ता व संसार से भिन्न मानता है । जीवों की सत्ता भिन्न अनंत स्व