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( ८) मुक्ति का साक्षात् साधन अपने ही श्रात्मा को परमात्मा के समान शुद्ध गुण वाला जान कर श्रद्धान करऔर सर्व प्रकार का राग द्वेष मोह त्याग कर उसी का ध्यान करना है । राग द्वेष मोहसे कर्म बघते हैं। इसके विपरीत वीतI राग भावमयी श्रात्मसमाधि से कर्म झड़ (नाश हो जाते हैं। ( 8 ) अहिंसा परम धर्म है । साधु इसको पूर्णता से पालते हैं । गृहस्थ यथाशक्ति अपने २ पद के अनुसार पालते हैं। धर्म के नाम पर, मांसाहार, शिकार, शौक आदि व्यर्थ कार्यों के लिये जीवों की हत्या नही करते हैं ।
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(१०) भोजन शुद्ध, ताज़ा, मांस मदिरा मधु रहित व पानी कुना हुआ लेना उचित है ।
(११) क्रोध, मान, माया, लोभ, यह चार आत्मा के है. इससे इनका संहार करना चाहिए।
शत्रु हः
(१२) साधुके नित्य छः कर्म ये हैं-सामायिक या ध्यान, प्रतिक्रमण [ पिछले दोषो की निन्दा ], प्रत्याख्यान ! श्रागामी के लिए दोष त्याग की भावना ], स्तुति, वंदना, कायोत्सर्ग [ शरीर की ममता त्यागना ] |
(१३) गृहस्थों के नित्य छः कर्म ये हैं- देव पूजा, गुरुभक्ति, शास्त्र पठन संयम, तप और दान |
( १४ ) साधु नग्न होते हैं: वे परिग्रह व प्रारंभ नहीं रखते। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य्य, परिग्रह- त्याग इन पाँच महावतों को पूर्ण रूप से पालते हैं ।
(१५) गृहस्थो के आठ मूलगुण ये हैं :- मदिरा, माँस, मधु का त्याग, तथा एक देश यथाशक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व परिग्रह-प्रमाण, इन पांच अणुव्रतों का पालना ।