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( १८८) का कुछ न बिगाड़ सका. तो भरत बहुन लज्जित हुए। उधर वाहूबलि अपने बड़े भाई भरत का राज्य लक्ष्मी के लोभ में फंसे होने के कारण, यह दुष्कृत्य देख और अपने द्वारा बड़े भाई का अपमान हुआ समझ, राज्य-लक्ष्मी की निन्दा कर तुरन्त वैरागी साधु हो गये और बहुत ही कठिन तपश्चरण करने लगे । एक वर्ष तक लगातार ध्यान में खड़े रहने से इनके शरीर पर बेलें तक चढ़ गई। अन्त में केवलशान प्राप्त कर मोक्षपद प्राप्त किया।
भरत बड़े न्यायी थे। इनका वड़ा पुत्र अर्ककीर्ति था। काशी के राजा प्रकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के सम्बन्ध के लिये स्वयम्वर-मण्डप रचा। तब सुलोचना ने भरत के सेनापति जयकुमार के कराठ में वरमाला डाली । इस पर अर्ककीर्ति ने रुष्ट होकर युद्ध किया और युद्ध में हार गया। चक्रवर्ती भरत ने अपने पुत्र की अन्यायप्रवृत्ति पर बहुत खेद किया और उसको किसी भी प्रकार की सहायता नहीं दी। भरत बड़े आत्मज्ञानी व राज्य करते हुए भी वैरागी थे।
एक दफे एक किसान ने भरत से पूछा कि आप इतना प्रबन्ध करते हुए भी तत्वज्ञान का मनन कैसे करते हैं? आपने उसे एक तेल का कटोरा दिया और कहा तू मेरे कटक में घूम श्रा, परन्तु यदि इस कटोरे में से एक बूंद भी गिरेगी तो तुझे दण्ड मिलेगा । वह कटोरे को ही देखता हुआ लौट आया । महाराज ने पूछा कि क्या देखा? उसने कहा कि कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि मेरा ध्यान कटारे पर था। यह सुनकर भरत ने कहा कि इसी तरह मेरा चित्त आत्मा पर रहता है। मैं सब कुछ करते हुए भी अलिप्त रहता हूँ।