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( १८५) मानी ब्राह्मण ऐसे भगवान के पास नहीं आयगा, इन्द्र ने उस के पास जा कर उससे इस श्लोक का अर्थ पूछा
काल्यं द्रव्य षद्कं नव पद सहितं जीव षट् काय लेश्या । पंचान्येचास्तिकाया व्रत समिति गति ज्ञान चारित्र भेदाः ॥ इत्येतन्मोक्ष मूलं त्रिभुवन महितैः प्रोक्त महगिरीशैः । प्रत्त्येति श्रद्दधाति स्पृशतिच मतिमान्यः सबै शुद्ध दृष्टिः॥
वह ब्राह्मण इस श्लोक में सांकेतिक शब्दों के कारण इसका अर्थ न समझ सका । तव वह अपने दोनो भाई व ५०० शिष्यों को लेकर समवशरण में गया। भगवान के दर्शन मात्र से इसका मन कोमल हो गया और भगवान को नमन कर के प्रश्न किये। तव ही भगवान की वाणी भी प्रगटी।
सात तत्वों का भाषण सुनकर ये तीनों भाई शिष्यों सहित मुनि होगये । इन्द्रने गौतम का दूसरा नाम इन्द्रमनि रखा । प्रभुने ६ दिन कम ३० वर्ष तक वहुत से देशों में विहार करके धर्मोपदेश दिया। राजग्रही के विपुलाचलपर बहुत दफ़ेवाणी प्रकटी। वहां का राजा श्रेणिक या विम्बसार भगवान का मुख्य भक्त था।
चन्दना सती वैशाली के राजाचेटक की लड़की कुमार अवस्था में ही आर्यिका हो गई । वह सव आर्यिकाओं में उसी प्रकार मुख्य हुई जैसे सर्व साधुओं में मुख्य गौतम या इन्द्रभूति थे। भगवान के इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौड, पुत्र, मैत्रेय, अकंपन. अधवेल तथा प्रभास, ये ११ गणधर थे। सर्व शिष्य १४००० मुनि, ३६००० आर्यिकायें, १ लाख श्रावक, ३ लाख श्राविकाये हुई।
फिर भगवान पावानगर के वनसे कार्तिक कृष्णा १४ की