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मैं बटा हुआ है। पांच म्लेच्छ खण्ड एक श्रार्यखण्ड । श्रार्यखण्ड में अवस्थाओं का विशेष परिवर्तन हुवा करता है ।
एक कल्पकाल बीस कोडाकोड़ी सागर का होता है। १ सागर में अनगिनती वर्ष होते है। इस कल्पके दो भेद हैं१ अवसर्पिणी २. उत्सर्पिणी।
जिसमें श्रायुकाय घटती जाय वह श्रवसर्पिणी और जिसमें बढ़ती जाय वह उत्सर्पिणी है।
इन दोनोंके ६-६ भाग हैं । अवसर्पिणी के ६ भाग ये हैं१. सुत्रमा सुषमा - चार कोड़ाकोड़ी सागरका २० सुखमा नीन कोड़ाकोड़ी सागर का ३ सुखमा दुखमा-दो कोड़ा कोड़ी सागर का ४. दुखमा सुखमा-४२००० वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागर का ५ दुखमा २१००० वर्ष का ६. दुखमा दुखमा २१००० वर्ष का ।
उत्सर्पिणी में इस का उल्टा क्रम है। जो छठा है वह यहां (उत्सर्पिणी में ) पहिला है ।
दोनों कालों का समय मिलकर ही बोस कोड़ाकोड़ी सागर हे । सुखमा सुखमा, सुखमा व सुखमा दुखमा कालों में भोगभमि की अवस्था श्रवनति रूप रहती है और शेष तीन में कर्मभूमि रहती है।
जहां कल्पवृक्षों से श्रावश्यक वस्तु लेकर स्त्री पुरुष संतोषसे जीवन बिताते है उसे भोगभूमि व जहां असि (शस्त्र कर्म), मसि (लेखन), कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या से परिश्रम करके धन कमाते, उससे श्रन्नादि ले भोजनादि बनाते, संतान उत्पन्न करते हैं उसे कर्मभूमि कहते है ।
हरएक अवसर्पिणी के चीथे काल में चौबीस महापुण्य