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वान पुरुप समय समय पर जन्मते हैं । वे धर्मतीर्थ का प्रकाश करते हैं इसलिये उनको तीर्थकर कहते हैं। वे उसी जन्म से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे ही उत्सर्पिणी के तीसरे काल में उन जीवों से भिन्न जीव २४ तीर्थङ्कर होते हैं। इस तरह इस भरत क्षेत्र के आर्थखण्ड में सदा ही २४ तीर्थंकर भिन्न २ जीव होते रहते हैं ।
वर्तमान में यहाँ अवसर्पिणी का पाँचवाँ काल चल रहा है । जब चौथे काल में तीन वर्ष साढ़े चाठ मास शेष थे तब श्री महावीर भगवान, जो बौद्धगुरु गौतमबुद्ध के समकालीन व उन से पूर्व जन्मे थे, मोक्ष पधारे थे। अब सन् १६२६ में वीर निर्वाण संवत् २४५५ चलता है ।
गत चौथे काल में जो २४ महापुरुष जन्मे थे, वे सब क्षत्रिय वंश के राज्य कुलों में हुए थे ।
इनमें से पहिले १५ व १६ वे २१ वे २३ वें व २४ वे इक्ष्वाकुवंश में व २२ यदुवंश में जन्मे थे । श्रीपार्श्वनाथ का उगवंश व श्रीमहावीर का नाथवंश भी कहलाता था ।
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२४ में से १६ राज्य करके गृहस्थी होकर फिर साधु हुए | केवल पांच - श्रर्थात् १२,१६,२२,२३, व २४ ने कुमारवय से ही मुनिपद ले लिया, विवाह नही किया ।
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* चडवीसवार तिघणं तित्थयरा छत्ति खंड भरहवई । तुरिये काले होंतिहु तेवढी सलाग पुरिसाते || ८०३ ॥ ( त्रिलोकसार ) भावार्थ -- भरत क्षेत्र के चौथे काल में त्रेसठ शलाका पुरुष होते रहते हैं । २४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ६ नारायण, ६ बलभद्र, ६ प्रतिनारायण ।