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ब्राह्मणात्रत संस्कारात् क्षत्रिया शन्त्र धारणात् । वाणिज्योऽर्थार्जनान्नयाय्यात् शूद्रान्यग्वृत्तिसंथयात् ॥४६॥ भावार्थ- जाति नाम कर्म के उदय से मनुष्य जाति एक ही है तथापि जीविका के भेद से वह भिन्न २ चार प्रकार की हो गई है। व्रतों के संस्कारों से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने क्षत्रिय, न्याय से द्रव्य कमाने से वैश्य, नीच वृत्ति का श्राय करने से शूद्र कहलाते है ।
यह भी व्यवस्था हुई कि श्रावश्यकता हुई तो ब्रा क्षत्रियादि अन्य तीनों वर्ण की, क्षत्रिय वैश्यादि दो वर्ण व वैश्यशूद्र की कन्या भी ले सकता है ।
शूद्र सिवाय तीन वर्ण उच्च समझे गये हैं जो प्रतिष्ठा अभिषेक, सुनिदान कर सकते व परम्पर एक पंक्ति में भोजन पान कर सकते हैं ।
जैन पुराणों में तोनो वणों में परस्पर विवाह होने के भी अनेक उदाहरण है - जैसे नत्रिय की कन्या का वैश्य पुत्र को विवाहाजाना और इसकी कोई निद्रा नहीं गई है। *
* शूद्राद्रेण वोडव्या नाम्या स्वां तांच नैगमः । वहेत्स्वांते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिचताः ॥ २४७ ॥ [ श्रादिपुराण पर्व १६ ] भावार्थ- शुद्र शूद्र की कन्या से विवाह करे--अन्य से नहीं, वैश्य वैश्यकी कन्यासे तथा शुद्रकी कन्यासे भी, क्षत्रिय क्षत्रिय की कन्या से व वैश्य व शूद्र की कन्या से भी, ब्राह्मण ब्राह्मण कन्या से व कमी क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की कन्या से भी । (अर्थं पं० लालाराम कृत )