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(१६४) उस का वर्ण स्थापित करे और फिर सर्वश्रापकों से जो उस वर्ण के हो उस के साथ विवाहादि सम्बन्ध करने को कहे।
जो शुद्ध की आजीविका न करते हो, किन्तु क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्यवत् आचरण करते हों उनकी अपेक्षा ये क्रियायें कही हैं।
इस के आगे की क्रिया कन्वय के समान नं० १९ से ५३ तक जाननी । पहिले १८ क्रियायें कही थी, यहाँ १३ कहीं, ये ही ५ क्रियायें कम हो गई।
७२. जैनियों में वर्णव्यवस्था
जैनियों में भी इस भरतक्षेत्र के इस कल्प में प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव ने उस समय जब कि समाज में कोई वर्ण व्यवस्था प्रकटरूप से न थी, जिन लोगों के प्राचार व्यवहार को क्षत्रियों के योग्य समझा उनको क्षत्रिय, जिनके प्राचार को वैश्य के योग्य समझा उन को वैश्य तथा जिनके आचरण को शुद्र के योग्य समझा उनको शूद्र वर्ण में प्रसिद्ध किया।
क्षत्रियों को आजीविका के लिये असि कर्म या शस्त्र विद्या, वैश्यों को मलि (लेखन), कृषि, वाणिज्य तथा शुद्रों को शिल्प विद्या (कला आदि) कर्म नियत किया तथा प्रत्येक को अपने २ वर्ष में विवाह करना ठहराया। ___इसके पीछे जो श्रावक धर्म अच्छी तरह पालते थे, दयावान थे, उनको ब्राह्मण वर्ण में ठहराया गया। महापुराण के पर्व ३८ में कहा है कि
मनुष्य जातिरेकैव जाति नामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदा हितानेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ४५ ॥