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(१३६ ) प्रभाव से निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है, उसी के उसी समय उसका सर्वज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पालेता है।
पूर्ण सम्यग्नान केवलज्ञान है जो सर्व कुछ देखता है। यह ज्ञान सम्यग्दर्शनसहित अपूर्ण सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक चारित्र के प्रभाव से प्रगट होता है। इसके मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यंय, केवल, ये पांच भेद हैं जिनका वर्णन प्रमाण में किया गया है।
६४. सम्यक् चारित्र वास्तव में जिस समय सम्यग्दर्शन हो जाता है, तब ही स्वरूपाचरण चारित्र भी प्रकट हो जाता है, परन्तु कषायों का उदय जारी रहने से व राग द्वेष के होने से पूर्ण सम्यक् चारित्र नही होने पाता है इसी की प्राप्ति के लिए व्यवहार चारित्र की सहायता से आत्मामें एकाग्रता रूप स्वरूपाचरण का अभ्यास करना उचित है।
इस सम्यक् चारित्र को जो पूरांपने निराकुल होकर पाल सकते हैं वे साधु हैं, जो अपूर्ण पाल सकते हैं वह श्रावक या गृहस्थ हैं। वास्तव में बिना साधु हुए सर्व कर्मों का नाश नहीं हो सकता है।
® मोह तिमिरापहरणे दर्शन लाभादवाप्त संज्ञानः । राग द्वेष निवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥
(रत्नकरण्ड०) भावार्थ-मिथ्यादर्शन रूपी अँधेर के जाने पर व सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर राग द्वेष को हटाने के लिए साधु को चारित्र पालना चाहिए ।
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