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________________ ( १३५) ७४ १०० अविरतसम्यग्दृष्टि ७७ १०४ १५० या १४१ देश विरत १४७ या १४० प्रमत्त विरत १४६ या १३६ মন বিল १४६ या १३६ अपूर्व करण १४२, १३६ या १३अनिवृत्ति करण १४२, १३६ या १३. मृत्म सांपराय ६० १४२, १३६ या १०२ उपशांत गेह ५६ १४२ या १३६ क्षीण मोह लयोग केवली १ ४१ या ४२५ श्रयोग केवती . १२ या ११ अन्त में . ६२. नौ पदार्थ सात तत्वों में पुण्य और पाप जोड़ देने से नौ पदार्थ कहलाने है ! आउ कर्म व उनके १५% भेदोंमें पहले यह बताया जा चुका है कि पुण्यकर्म व पापकर्म कौन कौन हैं। वास्तव में ये प्राव व बंध में गर्मित है, परन्तु लोगों में पुण्य पाप का नाम प्रसिद्ध है। इसलिये इनको विशेषरूप से भिन्न कहने की अपेक्षा नौ पदार्थ जैन सिद्धान्त में कहे गये हैं। ६३. सम्यग्ज्ञान ज्ञान तो हर एक जीव में थोड़ाया बहुत होता ही है। यह मान सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिसको सात तत्व और नौ पदार्थों के व विशेष कर आत्म मनन के
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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