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( १३७) ६५. साधुका चारित्र कोई वीर पुरुप परम वैरागी होकर, कुटुम्ब को समझा कर व सव से क्षमा भाव कराकर वा यदि कुटुम्ब का सन्वन्ध न हुवा तो यों ही परोक्ष क्षमा भाव करके, किसी प्राचार्य के पास जाकर सर्व धनादि वस्त्रादि परिग्रह त्याग कर नग्न दिगम्बर हो साधु पद धार लेता है । वह केवल मोर पल की पिच्छिका जीव रक्षार्थ झाड़ने के लिए व कमण्डल में शौच के लिए जल व आवश्यक हो तो शास्त्र रखते है वे और कुछ नहीं धारण करते हैं। मोर के पंख बहुत कोमल होते हैं, इस से छोटे से छोटा कीट भी बच सकता है व ये पंख स्वयं मोर के नाचने पर गिर पड़ते हैं। वे निम्न २८ मूल गुण पालते है:
५ महावत, ५ समिति (जिनका वर्णन न० ४४, ४५ में है) का पालन और ५ इन्द्रियों की इच्छाओं का दमन करते हैं। छः आवश्यक नित्य कर्म पालते है-जैसे (१) सामायिक अर्थान् प्रातःकाल, मध्यान्हकाल व सायंकाल छः घडी, ४ घड़ी व अशक होने पर २ घड़ी शान्ति से ध्यान का अभ्यास करना। एक घड़ी चौबीस मिनर की होती है । (२) प्रतिक्रमण अपने मन, वचन, काय के द्वारा बतों के पालन में जो दोष लग गए हो उनका पश्चात्ताप करना (३) प्रत्याख्यान-आगामी दोष न लगाने का विचार करना (४) संस्तव-चौवीस तीर्थदूर आदि पूज्य आत्माओं की स्तुति करना (५) बन्दनाएक विसी तीर्थकर को मुख्य कर के उन को वन्दना करनी (६) कायोत्सर्ग-शरीर से ममता त्याग कर आत्म-ध्यान में लीन होना।