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हैं । ५ वधन, ५ संघात, पांच शरीरोंमें तथा स्पर्शादि २० केवल मूल चार स्पर्शादि में, मिश्र व सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व में गर्मित है। इस तरह बंधमें १०+१६+ २ अर्थात् २८ कम व उदय में १० + १६ केवल २६ ही कम हुई, केवल मिश्र व सम्यक् प्रकृति नही ।
प्रथमोपशम सम्यचव से मिध्यात्व कर्म के तीन खण्ड हो जाते हैं - मिध्यात्व, मिश्र व सम्यक्त्व, इसलिये वंध एक का और उदय तीन का होता है ।
जितने कर्म नये बँधते है उनको बन्ध, जितने फल देते है व बिना फल दिये निमित्त बिना गिरते हैं उनको उदय और जो बिना फल दिये व गिरे बैठे रहे उनको सत्ता कहते है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान में -
बंध - १९२० में से ११७ का। यहां तीर्थङ्कर शाहारक शरीर व आहारक आङ्गोपाङ्ग का बन्ध नही होता है ।
उदय - १२२ में से ११७ का। यहां तीर्थङ्कर शाहारक दो सम्यक् प्रकृति व मिथ्यात्व इन पांच का उदय नहीं ।
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सत्ता - १४८ की ही ।
२. सासादन गुणस्थान
में-
बंघ - ११७ में से १६ कम यानी १०१ का। वे ९६ ये हैं:
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकश्रायु, नरक गति, नरक गत्यानुपूर्वी, हुंडक संस्थान, श्रसंप्राप्तासृपाटिक संहनन, एकेन्द्रिय से चौंद्रिय चार जाति, स्थावर, श्रातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण ।