SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२८ ) हैं । ५ वधन, ५ संघात, पांच शरीरोंमें तथा स्पर्शादि २० केवल मूल चार स्पर्शादि में, मिश्र व सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व में गर्मित है। इस तरह बंधमें १०+१६+ २ अर्थात् २८ कम व उदय में १० + १६ केवल २६ ही कम हुई, केवल मिश्र व सम्यक् प्रकृति नही । प्रथमोपशम सम्यचव से मिध्यात्व कर्म के तीन खण्ड हो जाते हैं - मिध्यात्व, मिश्र व सम्यक्त्व, इसलिये वंध एक का और उदय तीन का होता है । जितने कर्म नये बँधते है उनको बन्ध, जितने फल देते है व बिना फल दिये निमित्त बिना गिरते हैं उनको उदय और जो बिना फल दिये व गिरे बैठे रहे उनको सत्ता कहते है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान में - बंध - १९२० में से ११७ का। यहां तीर्थङ्कर शाहारक शरीर व आहारक आङ्गोपाङ्ग का बन्ध नही होता है । उदय - १२२ में से ११७ का। यहां तीर्थङ्कर शाहारक दो सम्यक् प्रकृति व मिथ्यात्व इन पांच का उदय नहीं । " सत्ता - १४८ की ही । २. सासादन गुणस्थान में- बंघ - ११७ में से १६ कम यानी १०१ का। वे ९६ ये हैं: मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकश्रायु, नरक गति, नरक गत्यानुपूर्वी, हुंडक संस्थान, श्रसंप्राप्तासृपाटिक संहनन, एकेन्द्रिय से चौंद्रिय चार जाति, स्थावर, श्रातप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy