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________________ ( १२७ ) प्रदेश सकम्प होते हैं, इस से सयोग कहलाते हैं । यहाँ श्रन्त मैं तीसरा शुक्लध्यान होता है । १४. प्रयोगकेवली जहां श्रात्म प्रवेश सकम्प न हों, निश्चल आत्मा रहे। यहां चौथा शुक्लध्यान होता है जिससे सर्व कर्मों का नाश कर गुणस्थानो से बाहर हो सिद्ध परमात्मा होजाता है । इसका ठहरने का काल उतना है जितनी देर में अ, इ, उ, ऋ, लृ, ये पाँच अक्षर कहे जावें । १३ वें का व ५ वें का उत्कृष्ट काल लगातार एक कोड़पूर्व ८ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त कम है। दूसरे का छः श्रावली । चौथे का तेतीस सागर कुछ अधिक। तीसरे का व छटे से लेकर १२ वे तकका प्रत्येक का अन्तमुहूर्त से अधिक काल नहीं है । पहले का काल अनन्त है । यह कालकी मर्यादा एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट कही गई है। ६१. गुणस्थानों में कर्मों का बंध, उदय और सत्ता का कथन १४८ कर्मों में से १२० बँधर्मे व १२२ उदय में गिनाई गई श्रावली असंख्यात समयोंकी होती है। पलक मारने में जो समय लगे उसके लगभग । + मिथ्याहक सासनो मिश्रोऽसंयतो देशसंयतः । प्रमत इतरोऽपूर्वानिवृत्ति करणौ तथा ॥ १६ ॥ सूक्ष्मोपशान्त संक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ । गुणस्थान विकल्पाः स्युरितिसर्वे चतुर्दश ॥ १७ ॥ [ तत्वार्थसार ० २] -
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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