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________________ (१२६) इसके आगे दो श्रेणियां हैं-एक उपशम दूसरी क्षपक। जहां अनन्तानुबन्धी चार के सिवाय २१ कषायोंका उपशम किया जावे वह उपशम व जहां क्षय किया जावे वह क्षपक श्रेणी है । उपशमके ८,६,१० व ११ तथा क्षपक के ८,६,१० व १२ ऐसे चारदर्जे हैं। उपशमवाला ११व से अवश्य गिरता है। क्षपक १० से १२३ में जाकर चार घातिया कर्म रहित होकर १३ वे में जाकर अरहन्त परमात्मा हो जाता है। ८. अपूर्व करण-जहां अनुपम शुद्ध भाव हो–यहाँ साधु के पहिला शुक्ल ध्यान होता है। ६. अनिवृत्ति करण-जहाँ ऐसे शुद्ध भाव हो कि साधु सर्व अन्य कषायो का उपशम या क्षय कर डाले, केवल अन्त में सूक्ष्म लोभ रह जावे। १०. सूक्ष्म साम्पराय-जहाँ केवल सूक्ष्म लोम रह जावे व साधु ध्यानमग्न ही बना रहे। ११. उपशांत मोह-जहाँ सर्व कषायों का उपशम होकर साधु वीतरागी हो जावे। १२. क्षीण मोह-जहां सर्व कषायों का क्षय होकर साधु वीतरागी बना रहे, गिरे नहीं। यहां दूसरा शुक्ल ध्यान होता है। १३. सयोगकेवली-यहां ज्ञानावरणादि ४ घातिया कर्मों से रहित हो अरहन्तपरमात्मा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्तबली व अनन्त सुखी होजाता है व शरीर में रहते हुए जिसके बिना इच्छा के विहार व उपदेश होता है। यहां आत्मा के
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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