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( १२५ ) इस क्षयोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अन्तमुहर्न, स्कृष्ट ६६ सागर काल है । यही यदि साती प्रकृतियों का क्षय कर डालता है तो क्षायिकसम्यग्दृष्टि होजाता है। फिर अनन्त काल तक कभी मिथ्यात्वी नहीं होता है और तीसरे या चौथे भव में मोक्ष पा लेता है। ____जो सम्यग्दर्शन से गिरकर पहिले में आता है उसका सादि मिथ्यादृष्टि कहते हैं, उसको फिर चौथे में जाने के लिए सात प्रकृतियों का व कभी केवल चार कपाय व एक मिथ्यात्व का ही उपशन करना पड़ता है, और तब मिश्र तथा सम्यक् प्रकृति दोनों सत्ता में से घिर जाती है।
५. देश विरत-सम्यग्दृष्टि जीव श्रावक गृहस्थ के व्रतों को रोकने वाली अप्रत्याख्यानावरण चार कपाय के उप. शम होने पर इस दज मे आकर श्रावक के बारह व्रतों को ग्यारह श्रेणियों या प्रतिमाओं के द्वारा उन्नति करता हुआ पालता है।
इस के आगे के दर्जे साधुओं के है।
६. प्रमत्त विरत--प्रत्याख्यानावरण कपाय जो मुनि. व्रत को रोकती थी उस के उपशम होने पर यह दर्जा होता है। यह सातवे से गिर कर होता है, पाँच से सातवें में जाता है । छठा सातवाँ वार बार होता रहता है।
इस के आगे के दजों में प्रमाद भाव नहीं रहता है।
७. अप्रमत्त विरत-यहाँ संज्वलन चार व नौ नो कषाय का मन्द उदय होने पर धर्म ध्यान में निर्विकल्परूप से मन्न रहता है।