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________________ ( १२४ ) २. सासादन गुणस्थान - पहिले दर्जे से एक दम चौथे अविरत सम्यक्त्व में जाकर अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से गिर कर इस में आता है फिर तुर्त ही मिथ्यात्व में चला जाता है 1 ३. मिश्र गुणस्थान - जहाँ मिथ्या व सत्य श्रद्धान के मिले हुए भाव होते हैं । जैसे दही मीठेका मिला हुआ स्वाद । यहां दर्शन मोह की सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है । ४. अविरत सम्यक्त्व अनादि मिध्यादृष्टि जोव आत्मानात्मा के विवेक होने पर निर्मल भावों से तत्व का मनन करते हुए जब अनन्तानुबन्धी कषाय चार और मिथ्या. त्व प्रकृति इन पांच का उपशम कर देता है अर्थात् इन के उदय को अन्तमुहूर्त के लिए दबा देता है तब पहिले से भट चौथे में आकर उपशम सम्यक्त्वी हो जाता है । तत्र मिध्यात्व कर्म के तीन टुकड़े कर देता है, कुछ सम्यक् प्रकृति रूप, कुछ मिश्ररूप, कुछ मिथ्यात्वरूप । तब इस की सत्ता में सम्यग्दर्शन की बाधक सात प्रकृतियें होजाती हैं । - यह जीव अन्तर्मुहूर्तके भीतर कुछ समय रहते हुए यदि अनन्तानुबन्धीका उदय पालेता है तब सासादनमें गिरता है, यदि न्तमुहूर्त पीछे मिथ्यात्व का उदय होजाता है तो फिर चौथे से पहिले में आ जाता है । यदि सम्यक् प्रकृति का उदय हुआ तो चौथे में ही रहकर क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व से गिर कर मिश्र प्रकृति के उदय होने पर तीसरे में आ सकता है ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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