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(१२२) यह सर्व कर्म बंधन काटकर आत्मा को परमात्मा या सिद्ध कर देता है।
५६. मोक्ष तत्व जब कर्मबंध के कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग सब बंद होजाते हैं व पहले वांधे हुए सर्व कर्मों की निर्जरा होजाती है, तब यह जीव सूक्ष्म व स्थूल शरीरों से छुटा हुश्री पूर्ण शुद्धहोकर अन्तिम देह के आकार से कुछ कम सीधा ऊपर को गमन करता है और लोकाकाश के अन्तमें सिद्ध क्षेत्र पर ठहर जाता है। वहां उसी ध्यानाकार चैतन्यमई भाव में अन्य आत्माओं से भिन्न अपने सर्व गणों को पूर्ण विकसित करता हुवा अनन्त अतींद्रिय सच्चे आनन्द में मन्न रह कर परम निराकुल व परम कृतकृत्य हो जाता है । न यह किसी में मिलता है न यह फिर कभी अशुद्ध होकर जन्म धारण करता है। इसी को परमात्मा, परमब्रह्म, परमप्रभु, ईश्वर, सर्वश, वीतराग, परमसुखी कहते हैं।
* ध्यानका विशेष स्वरूप श्री शुभचन्द्राचार्यकृत शानारणव ग्रंथ में देखो।
प्रभावाद्वन्ध हेतूनां बंध निर्जरयातथा । कृत्स्न कर्म प्रमोक्षोहि मोक्ष इत्यभिधीयते ॥२॥ दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबोजे तथा दुग्धे न रोहति भवांकुर ॥७॥ आकारभावतोऽभावो न च तस्य प्रसज्यते। अनन्तर परित्यक्त शरीराकार धारिणः ॥ १५ ॥