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५८. शुक्ल ध्यान
धर्म ध्यानका अभ्यास मुनिगण करते हुए जब सातवे दर्जे [ गुणस्थान ] से आठवें दर्जे में जाते है तब से शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं। इसके भी चार भेद है। पहले दो साधुओं के अन्तके दो केवलज्ञानो अरहन्तों के होते है ।
१. पृथक्त्व वितर्क वीचार -
यद्यपि शुक्ल ध्यान में ध्याता बुद्धिपूर्वक शुद्धात्मा में ही लीन है तथापि उपयोग की पलटन जिसमें इस तरह होवे कि मन, वचन, कायका श्रालम्वन पलटता रहे, शब्द पलटता रहे व ध्येय पदार्थ पलटता रहे, वह पहला ध्यान है । यह आठवैसे ११ वे गुणस्थान तक होता है । २. rara faas ratचार
जिस शुक्ल ध्यान में मन, वचन, काय यांगों में से किसी एक पर, किसी एक शब्द व किसी एक पदार्थके द्वारा उप योग स्थिर हो जावे सो दूसरा शुक्ल ध्यान १२ वे गुणस्थान में होता है ।
३. सूक्ष्मक्रियापतिपाति -
अरहन्त का काय योग जब तेरहवे गुणस्थान के श्रन्तमे सूक्ष्म रह जाता है तब यह ध्यान कहलाता है ।
४. व्युपरत क्रिया निवर्ति
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जब सर्वयोग नहीं रहते व जहां निश्चल श्रात्मा होजाता है तब यह चौथा शुक्ल ध्यान चौदहवे गुणस्थान में होता है ।