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( १२०) सार इसका भी अभ्यास कर सकता है। इसमें भिन्न २ पदोको विराजमान कर ध्यान करना चाहिये। जैसे हृदय स्थान में
आठ पाँखड़ी का सुफ़ेद कमल सोचकर उसके पाठ पत्तों पर क्रम से नि पाठ पद पीले लिखे
१. णमो अरहताणं २. एमो सिद्धाणं ३. णमोबाइल रीयाणं ४ णमोउवमायाणं ५. णमो लोएसव्वसाहुणं ६. सम्यग्दर्शनायनमः ७ सम्यग्ज्ञानायनमः ८. सम्यक चारि. त्रायनमः और एक एक पद पर रुकता हुआ उस का अर्थ विचारता रहे। अथवा अपने हृदय पर या मस्तक पर या दोनों भौहों के मध्य में या नाभि में हैं या ऊँ को चमकते सूर्य सम देखे व अरहंत सिद्ध का स्वरूप विचारे। इत्यादि
५६. रूपस्थ ध्यान ध्याता अपने चित्तमें यह मोचे कि मै समवशरण में साक्षात् तीर्थकर भगवान को अन्तरीक्ष ध्यानमय परम वीतराग, छत्र चमरादि पाठ प्रोतिहार्य सहित देख रहा हूँ। १२ सभायें है जिनमे देव, देवी, मनुष्य, पशु, मुनि श्रादि बैठे है। भगवानका उपदेश हो रहा है । अथवा ध्याता किसी भी परहन्त की प्रतिमा को अपने चित्त में लाकर उसके द्वारा अर. हन्त का स्वरूप विचारे।
५७. रूपातीत ध्यान ध्याता इस ध्यान में अपने को शुद्ध स्फटिकमय सिद्ध भगवान के समान देखकर परम निर्विकल्प सप हुवा ध्यावे।