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________________ ( १९१ ) से आत्मा के ध्यान में चित्त को मन करना तथा शत्रु, मित्र, तृण, कञ्चन, मान, अपमान में समान भाव रखना । मुनियों का यह परम धर्म है। [२] छेदोपस्थापना-सामायिक भाव से गिर कर फिर अपने को सामायिक भाव में स्थिर करना व साधु व्रत में कोई दोष लगने पर उसकी शुद्धि कर के फिर स्थिर होना । [३] परिहार विशुद्धि-एक विशेष चारित्र जो तीर्थकर भगवान की सगति से साधु को प्राप्त होता है, जिस से जीव रक्षा में बहुत सावधानी हो जाती है। [४] सक्ष्म सांपराय-एक ऐसी आत्म भन्नता जिस में बहुत ही सूक्ष्म लोम का उदय रहता है। [५] यथाख्यात-जैसे चाहिए वैसा सर्व काय रहित निर्मल वीतराग भाव । ५१. निर्जरा तत्व जिन अात्माके परिणामोंसे कर्म फल देकर या विनाफल दिये हुए आत्मा से भड़जाते है वह भावनिर्जरा है और कर्मों का झड़ना सो द्रव्य निर्जरा है। जहां कर्म फल देकर भड़ते हैं उसको सविपाक निर्जरा कहते है, जहां विना फल दिये हुए झडते हैं वह अविपाक निर्जरा है । वास्तव में पहले वांधे हुए कर्माका बिनाफल दिये हुए तप आदि वीतराग भावोंके द्वारा झड़ने को ही निर्जरातत्व कहते हैं। यही मोक्ष का कारण है। देखो तत्वार्थसूत्र अ०६
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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