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________________ (१०६) [६] अशचि-यह शरीर मल से बना है व कृमि मल मूत्र, हड्डी आदि अपवित्र वस्तुओं से भरा है, रोएँ २ से मल बहता है, पवित्र जलादि को स्पर्श मात्र से अपवित्र कर देना है। इस तन से उदास रह आत्मोन्नति करनी चाहिए । [७] श्रास्त्रप-मन, वचन, काय के वर्तन से कर्म आते है जिससे प्राणी पराधीन हो जाते हैं। ८) संवर-कमों के आने को रोकना ही जीवका हिन है, जिस से स्वाधीनता प्राप्त हो। हा निर्जरा-पूर्व में बांधे कर्मों को ध्यानादि तप कर के.दूर करना ही श्रेष्ठ है। [१०] लोक-यह लोक अनादि अनन्त अकृत्रिम है, छ द्रव्यों से भरा है। इस में एक सिद्ध क्षेत्र ही वास करने योग्य परम सुखदाई है। [११] बोधिदुर्लभ-आत्मोद्धार का मार्ग तो सम्यर. दर्शन, बान चारित्र है । उसका लाभ वडा कठिन है, अब हुश्रा है तो इसे रक्षित रखना योग्य है । [१२] धर्म-धर्म आत्मा का स्वभाव है, यह मुनि व श्रावक के भेद से दो तरह है। दश लक्षण रूप है, अहिंसामई है, यही हितकारी है। - ® अनित्याशरण संसारकत्वाशुच्यानवसंवर निर्जरालोकवाधिदुर्लमधर्मस्वाख्याततत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ॥७॥ (तत्वा०६)
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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