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(80) १३. नीच गोत्र बन्ध के विशेष भाव
१. दूसरों की निन्दा करनी २. अपनी प्रशंसा करनी ३. दूसरों के होते हुए गुणों को ढकना ४ अपने न होते हुये गुणों को प्रकट करना। १४. ऊँच गोत्र वन्ध के भाव
१. दूसरों की प्रशंसा करनी २ अपनी निन्दा करनी ३. दूसरों के गुणों को प्रकट करना ४. अपने गुणों का ढकना ५. विनय से वर्ताव करना ६. उद्धतता या मान नहीं करना। १५, अन्वराय कर्म बन्ध के भाव
१. दान देते हुए को मना करना २. किसी को कुछ लाभ होता हो उस में विघ्न कर देना ३ किसी के खाने पीने आदि भोगों में अन्तराय करना ४ किसी के वस्त्र, मकान, श्री आदि बार बार भोगने योग्य पदार्थों का वियोग करा देना ५ किसी अच्छे काम के उत्साह को भङ्ग कर देना।
४०. आस्त्रव और बन्ध का एक काल
जिस समय कर्म वर्गणायें आती हैं उसी समय बँध जाती हैं। आश्रव और वन्ध के लिए कारण एक ही हैं। जिन मिथ्यादर्शन, अवरति, प्रमाद, कषाय, योगों से प्रास्रव होता है, उनही ले वन्ध होता है। जैसे नाव के छेद से पानी आता जाता है वैसेही ठहरता जाता है। पानी के श्राने व ठहरने का एक ही द्वार है। इसी तरह कर्मों के आने और वन्धने का एक ही कारण है । कार्य दो हैं जैसे पानी का पाना और ठहरना,
+इस के लिए देखो तत्वार्थ सूत्र अध्याय छठा
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