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________________ (६३ ) फिर २७ में से १८ वर्ष बीतने पर दूसरा अवसर प्रायगा; इसी तरह समझ लेना। उन कर्म वर्गणाओं का जो एक समय में आती हैं जित. नी प्रकृति बँधती हैं. उनमें हिस्सा होजाता है-यही प्रदेशबंध है । आत्मा से कर्म सब तरफ़ बंधते हैं; किसी एक ख़ास भाग में नहीं। जितनी कर्म प्रकृतियां बँधती हैं उनमें काल की मर्यादा पडती है। यह स्थिति बंध उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य क्रोधादि कषायों के आधीन पड़ता है । आठों कर्मों की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति निम्नप्रकार है, मध्य के अनेक भेद हैं :कर्म उत्कृष्ट जघन्य १शानावरणीय ३० कोड़ाकोडीसागर अन्तमुहूर्न २ दर्शनावरणीय ३ वेदनीय १२ मुहूर्त ४ मोहनीय ७० , अन्तमुहूर्त ३३ सागर अन्तमुहूर्त ६ नाम २० कोड़ाकोड़ीसागर आठ मुहूर्त ७ गोत्र २० " " " ." अन्तराय ३० अन्तम इत कोई कर्म वर्गणाएं अपनी स्थिति से अधिक बँधी हुई नहीं रह सकती हैं, अवश्य झड़ जायेंगी। नाम प्रत्ययाः सर्वतो योग विशेषात्सूक्षमैक क्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंत प्रदेशाः ॥२॥ [तत्वा० अ०८] आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम ५.आयु
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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