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(६२) १उच्चगोत्र, १ सातावेदनीय: यहसर्व प्रकृनियां ६८ पुण्य रूप हैं।
शेष ४७ घातिया कर्मों को, १ अलातावेदनीय, १ नीच गोत्र १ श्रायु व ५० नामकर्म की कुल १०० पाप प्रकृतियां हैं। यहाँ स्पर्शादि २० को दोजगह गिनने सं १६-प्रकृतियां होती हैं।
नोट-ऊपर कर्म के भेदों में निर्माण को दो व विहा. योगति को एक गिना था । यहाँ पुण्य पाप में विहायोगति को शुभ व अशुभ दो रूप गिन के निर्माण को एक गिना है।*
नोट २-कर्मों की विस्तृत व्याख्या के लिये देखो "श्री वृहन्जैनशब्दार्णव" भाग १ शब्द प्रघातियाकर्म पृष्ट ७६-५
३८. प्रदेश-स्थिति-अनुभागबंध
हर एक संसारी जीवके जब तक वह अहंत पदवी के निकट न पहुँचे, सातो कमों के बँधने योग्य अनन्त कार्मण वर्गणाएं हर समयमें आती रहती हैं, श्रायु कर्म के योग्य हर समय में नहीं पातीं। इस कर्म भूमि के मनुष्य व तियंचों के लिये आयु कर्म के वध का यह नियम है कि जितनी श्रायु हो उसके दो तिहाई बीतने पर अन्तमुहूर्त के लिये आय वध का समय आता है । उसमें बांधे या न बांधे, फिर शेष आयु में दो तिहाई बीतने पर दूसरा अवसर आता है। इसी तरह पाठ अवसर आते हैं। यदि कोई इनमे भी न बाँधे तो मरण से अन्तर्मुहूर्त पहले भागे के लिये आयु कर्म अवश्य बांधा जाता है। जैसे किसी की आयु ८१ वर्ष की है तो ५४ वर्ष चीनने पर पहला
* सद्यः शुभायुनर्नाम गोत्राणि पुण्यम् ॥२५॥ अतोऽन्यपापम् ॥ २६॥
(तत्वा० अ०)