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(१) ३७. आठ कर्मों में पुण्य पाप भेद
मूल पाठ कर्मों में साता वेदनीय, उच्चगोत्र.शुभ नाम, शुभ प्रायु पुण्यकर्म हैं। शेष सब पापकर्म हैं।
१४८ में पुण्यकर्म ३ आयुकर्म की-तियंच, मनुष्य, देव ।
६३ शुभ नामकर्म की-(१) मनुष्यगति (२) देव गति (३) पञ्चेन्द्रिय जाति ( ४-१८ ) औदारिकादि ५ शरीर, धन्ध ५, संघात ५ ( १९-२१ ) तीनांगोपाइ (२२) समचतुरस्र संस्थान ( २३ ) वज्र वृषभनाराच संहनन (२४४३) शुभ स्पर्शादि (४४-४५) मनुष्य व देव गत्यानुपूर्वी (४६) अगुरुलघु (४७)पर घात (४८) उचास (४६) आतप (५०) उद्योत (५१) विहायोगतिशुभ (५२) त्रस (५३) वादर (५४) पर्याप्ति (५५) प्रत्येक शरीर (५६) स्थिर (५७) शुभ (५८) सुभग (५६) सुस्वर (६०) श्रादेय (६१) यशकीर्ति
६२) निर्माण (६३) तीर्थङ्कर । संज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमाः ॥६॥ गति जाति शरीरांगोपागनिर्माणवन्धनसंघातसंस्थान संहनन स्पर्शरसगन्ध वर्णानुपूाऽगुरुलघूपधातपरयाता तपोद्योतो. छासविहायोगतयः प्रत्येक शरीर त्रस सुभग सुस्वर शुभ सून्म पर्याप्ति स्थिरादेय यशः कीर्ति सेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥६॥ उच्चनीचैश्च ॥ १२ ॥ दान लोभ भोगोपभोग वीर्याणाम् ॥ १३ ॥
(तत्वार्थसूत्र अ०%)