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४. लोकव्यवस्था
जैनी लोकव्यवस्थाका मूल मन्त्र :
"भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुणपज्जएसु भावा उप्पायवयं पकुव्वंति ।"
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किसी भाव अर्थात् सद्का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत्का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूपसे उत्पाद, व्यय करते रहते हैं । लोकमें जितने सत् हैं वे त्रैकालिक सत् हैं । उनकी संख्या में कभी भी हेर-फेर नहीं होता। उनकी गुण और पर्यायोंमें परिवर्तन अवश्यम्भावी है, उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता । इस विश्व में अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालाणु द्रव्य हैं । इनसे यह लोक व्याप्त है । जितने आकाश देशमें ये जीवादि द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं । लोकके बाहर भी आकाश है, वह अलोक कहलाता है । लोकगत आकाश और अलोकगत आकाश दोनों एक अखण्ड द्रव्य हैं । यह विश्व इन अनन्तानन्त 'सतों' का विराट् आगार है और अकृत्रिम है' । प्रत्येक 'सत्' अपने में परिपूर्ण स्वतन्त्र और मौलिक है ।
सत्का लक्षण है उत्पाद, व्यय और प्रौव्यसे युक्त होना । प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिणमन करता है । वह पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्याय धारण करता है । उसकी यह पूर्व व्यय तथा उत्तरोत्पादको धारा अनादि और अनन्त है, कभी भी विच्छिन्न नहीं होती । चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भी सत् इस उत्पाद, व्ययके चक्र से बाहर नहीं है । यह उसका निज स्वभाव है । उसका मौलिक धर्म है कि उसे प्रतिक्षण परिणमन करना ही चाहिये और अपनी अविच्छिन्न धारामें असंकरभावसे अनाद्यनन्त रूपमें परिणत होते रहना चाहिये । ये परिणमन कभी सदृश भी होते हैं और कभी विसदृश भी । ये कभी एक दूसरे के निमित्तसे प्रभावित भी होते हैं । यह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमनकी
१. “ लोगो अकिट्टिमो खलु" - मूला० गा० ७१२ ।
२. “ उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत्" - त० सू० ५/३० ।
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- पंचा० गा० १५० ।
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