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जैनदर्शन नैयायिकोंने शास्त्रार्थमें जीतनेके लिए छल. जाति और निग्रहस्थान जैसे असद उपायोंका भी आलम्बन लेकर सन्मार्ग-रक्षाका लक्ष्य सिद्ध करनेकी परम्पराका समर्थन किया है। छल, जाति और निग्रहस्थानोंकी किलेबन्दी प्रतिवादीको किसी भी तरह चुप करनेके लिए की गयी थी। जिसका आश्रय लेकर सदोष साधनवादी भी निर्दोष प्रतिवादीपर कीचड़ उछाल सकता था और उसे पराजित कर सकता था। किन्तु जैनदार्शनिकोंने शासन-प्रभावनाको भी असद् उपायोंसे करना उचित नहीं माना। वे साध्यकी तरह साधनकी पवित्रतापर भी उतना ही जोर देते हैं। सत्य और अहिंसाका ऐकान्तिक आग्रह होनेके कारण उन्होंने वादकथा जैसे कलुषित क्षेत्रमें भी छल, जाति आदिके प्रयोगोंको सर्वथा अन्याय्य कहकर नीतिका सीधा मार्ग दिखाया कि जो भी अपना पक्ष सिद्ध कर ले, उसकी जय और दूसरेकी पराजय होनी चाहिए। और छल, जाति आदिके प्रयोगकी कुशलतासे जय-पराजयका कोई सम्बन्ध नहीं है। बौद्धोंका भी यही दृष्टिकोण है । ( विशेषके लिए देखो, जयपराजयव्यवस्था प्रकरण)। तत्त्वाधिगमके उपाय :
जैनदर्शनने पदार्थके वास्तविक स्वरूपका सूक्ष्म विवेचन तो किया ही है। साथ-ही-साथ उन पदार्थोके जानने, देखने, समझने और समझानेकी दृष्टियोंका भी स्पष्ट वर्णन किया है। इनमें नय और सप्तभंगीका विवेचन अपना विशिष्ट स्थान रखता है । प्रमाणके साथ नयोंको भी तत्त्वाधिगमके उपायोंमें गिनाना जनदर्शनकी अपनी विशेषता है। अखण्ड वस्तुको ग्रहण करनेके कारण प्रमाण तो मूक है। वस्तुको अनेक दृष्टियोंसे व्यवहार में उतारना अंशग्राही सापेक्ष नयोंका ही कार्य है । नय प्रमाणके द्वारा गृहीत वस्तुको विभाजित कर उसके एक-एक अंशको ग्रहण करते हैं और उसे शब्दव्यवहारका विषय बनाते हैं। नयोंके भेद-प्रभेदोंका विशेष विवेचन करनेवाले नयचक्र, नयविवरण आदि अनेक ग्रन्थ और प्रकरण जैनदर्शनके कोषागारको उद्भासित कर रहे हैं । ( विस्तृत विवेचनके लिए देखो, नयमीमांसा प्रकरण)। ___ इस तरह जैनदर्शनने वस्तु-स्वरूपके विचारमें अनेक मौलिक दृष्टियाँ भारतीय दर्शनको दी हैं, जिनसे भारतीय दर्शनका कोषागार जीवनोपयोगी ही नहीं, समाज-रचना और विश्वशान्तिके मौलिक तत्त्वोंसे समृद्ध बना है।
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