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२७.
विषय प्रवेश निदिध्यासन किया है। जिसका यह स्वाभाविक फल है कि उन्हें अपनी बलवती भावनाके अनुसार वस्तुका वह स्वरूप स्पष्ट झलका और दिखा। भावनात्मक साक्षात्कारके बलपर भक्तको भगवान्का दर्शन होता है, इसकी अनेक घटनाएँ सुनी जाती हैं । शोक या कामकी तीव्र परिणति होने पर मृत इष्टजन और प्रिय कामिनीका स्पष्ट दर्शन अनुभवका विषय ही है'। कालिदासका यक्ष अपनी भावनाके बलपर मेघको सन्देशवाहक बनाता है और उसमें दूतत्वका स्पष्ट दर्शन करता है। गोस्वामी तुलसीदासको भक्ति और भगवद्गुणोंकी प्रकृष्ट भावनाके बलपर चित्रकूटमें भगवान् रामके दर्शन अवश्य हुए होंगे । आज भक्तोंकी अनगिनत परम्परा अपनी तीव्रतम प्रकृष्ट भावनाके परिपाकसे अपने आराध्यका स्पष्ट दर्शन करती है, यह विशेष सन्देहकी बात नहीं। इस तरह अपने लक्ष्य और दृष्टिकोणकी प्रकृष्ट भावनासे विश्वके पदार्थोंका स्पष्ट दर्शन विभिन्न दर्शनकार ऋषियोंको हुआ होगा। यह निःसन्देह है । अतः इसी 'भावनात्मक साक्षात्कार' के अर्थमें 'दर्शन' शब्दका प्रयोग हुआ है, यह बात हृदयको लगती है और सम्भव भी है। फलितार्थ यह है कि प्रत्येक दर्शनकार ऋषिने पहिले चेतन और जड़के स्वरूप, उनका परस्पर सम्बन्ध तथा दृश्य जगत्की व्यवस्थाके मर्मको जाननेका अपना दृष्टिकोण बनाया, पीछे उसीकी सतत चिन्तन और मननधाराके परिपाकसे जो तत्त्वसाक्षात्कारकी प्रकृष्ट और बलवती भावना हुई उसके विशद और स्फुट आभाससे निश्चय किया कि उनने विश्वका यथार्थ दर्शन किया है तो दर्शनका मूल उद्गम 'दृष्टिकोण' से हुआ है और उसका अन्तिम परिपाक है भावनात्मक साक्षात्कारमें। दर्शन अर्थात् दृढ़ प्रतीति :
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीने न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके प्राक्कथनमें दर्शन शब्दका 'सबल प्रतीति' अर्थ किया है। 'सम्यग्दर्शन' में जो 'दर्शन' शब्द है उसका अर्थ तत्त्वार्थसूत्र ( १।२ ), में 'श्रद्धान' किया गया है । तत्त्वोंकी दृढ़ श्रद्धाको ही सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस अर्थसे जिसकी जिस तत्त्वपर दृढ़ श्रद्धा हो अर्थात् अटूट विश्वास हो वही उसका दर्शन है। यह अर्थ और भी हृदयग्राही है; क्योंकि प्रत्येक दर्शनकार ऋषिको अपने दृष्टिकोण पर दृढ़तम विश्वास था ही। विश्वासकी भूमिकाएँ विभिन्न होती ही हैं। जब दर्शन इस तरह विश्वासकी भूमिका पर प्रतिष्ठित हुआ तो उसमें मतभेद होना स्वाभाविक ही है। इसी मतभेदके कारण 'मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना' मूर्तरूपमें अनेक दर्शनोंकी सृष्टि हुई। १. “कामशोकभयोन्मादचौरस्वप्नाद्य पप्लुताः ।
अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ॥"-प्रमाणवा० २।२८२॥
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