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________________ जैनदर्शन वर्णित है। तब यह निर्णय कैसे हो कि- 'अमुक दर्शन वास्तविक अर्थसमुद्भूत है और अमुक दर्शन मात्र कपोलकल्पित ?' अतः दर्शन शब्दकी यह निर्विकल्पक रूप व्याख्या भी दर्शनशास्त्रके 'दर्शन' को अपनेमें नहीं बाँध पाती। दर्शनको पृष्ठभूमि : संसारका प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मोंका अखंड मौलिक पिण्ड है। पदार्थका विराट् स्वरूप समग्रभावसे वचनोंके अगोचर है। वह सामान्य रूपसे अखंड मौलिककी दृष्टिसे ज्ञानका विषय होकर भी शब्दकी दौड़ के बाहर है। केवलज्ञानमें जो वस्तुका स्वरूप झलकता है, उसका अनन्तवाँ भाग ही शब्दके द्वारा प्रज्ञापनीय होता है । और जितना शब्दके द्वारा कहा जाता है उसका अनन्तवाँ भाग श्रुतनिबद्ध होता है। तात्पर्य यह कि-श्रुतनिबद्धरूप दर्शनमें पूर्ण वस्तुके अनन्त धर्मोका समग्रभावसे प्रतिपादन होना शक्य नहीं है। उस अखंड अनन्तधर्मवाली वस्तुको विभिन्न दर्शनकार ऋषियोने अपने अपने दृष्टिकोणसे देखने का प्रयास किया है और अपने दृष्टिकोणोंको शब्दों में बाँधनेका उपक्रम किया है। जिस प्रकार वस्तुके धर्म अनन्त हैं उसी प्रकार उनके दर्शक दृष्टिकोण भी अनन्त हैं और प्रतिपादनके साधन शब्द भी अनन्त ही हैं। जो दृष्टियाँ वस्तुके स्वरूपका आधार छोड़कर केवल कल्पनालोकमें दौड़ती हैं, वे वस्तुस्पर्शी न होने के कारण दर्शनाभास ही हैं, सत्य नहीं। जो वस्तुस्पर्श करनेवाली दृष्टियाँ अपनेसे भिन्न वस्त्वंशको ग्रहण करनेवाले दृष्टिकोणोंका समादर करती हैं, वे सत्योन्मुख होनेसे सत्य हैं । जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया वस्तुका अंश ही सच है, अन्यके द्वारा जाना गया मिथ्या है, वे वस्तुस्वरूपसे पराङ्मुख होनेके कारण मिथ्या और विसंवादिनी होती हैं। इस तरह वस्तुके अनन्तधर्मा स्वरूपको केन्द्रमें रखकर उसके ग्राहक विभिन्न 'दृष्टिकोण' के अर्थमें यदि दर्शन शब्दका व्यवहार माना जाय तो वह कथमपि सार्थक हो सकता है । जब जगत्का प्रत्येक पदार्थ सत्असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी विभिन्न धर्मोंका अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब इनके ग्राहक विभिन्न दृष्टिकोणोंको आपसमें टकरानेका अवसर ही नहीं है । उन्हें परस्पर उसी तरह सद्भाव और सहिष्णुता वर्तनी चाहिये जिस प्रकार उनके विषयभूत अनन्तधर्म वस्तुमें अविरोधी भावसे समाये हुए रहते हैं। वर्शन अर्थात् भावनात्मक साक्षात्कार : _____ तात्पर्य यह है कि विभिन्न दर्शनकार ऋषियोंने अपने-अपने दृष्टिकोणोंसे वस्तुके स्वरूपको जाननेकी चेष्टा की है और उसीका बार-बार मनन-चिन्तन और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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