________________ स्याद्वाद 411 द्वारा भावभेद नहीं किया जा सकता। यदि पदार्थ अपने कारणोंसे अभिन्न उत्पन्न हुए हैं, तो अभाव उनमें भेद नहीं डाल सकता और यदि भिन्न उत्पन्न हुए हैं, तो अन्योन्याभावकी कल्पना ही व्यर्थ है।' वे ऊर्ध्वतासामान्य और पर्यायविशेष अर्थात् द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तुमें दूषण देते हुए लिखते हैं कि “सामान्य और विशेषमें अभेद माननेपर या तो अत्यन्त अभेद रहेगा या अत्यन्त भेद / अनन्तधर्मात्मक धर्मी प्रतीत नहीं होता, अतः लक्षणभेदसे भी भेद नहीं हो सकता। दही और ऊँट परस्पर अभिन्न है; क्योंकि ऊँटसे अभिन्न द्रव्यत्वसे दहीका तादात्म्य है। अतः स्याद्वाद मिथ्यावाद है।" आदि। यह ठीक है कि समस्त पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे स्वस्वभावस्थित उत्पन्न होते हैं / 'परन्तु एक पदार्थ दूसरेसे भिन्न है' इसका अर्थ है कि जगत् इतरेतराभावात्मक है। इतरेतराभाव कोई स्वतन्त्र पदार्थ होकर दो पदार्थोंमें भेद नहीं डालता, किन्तु पटादिका इतरेतराभाव घटरूप है और घटका इतरेतराभाव पटादिरूप है / पदार्थमें दोनों रूप है-स्वास्तित्व और परनास्तित्व / परनास्तित्वरूपको ही इतरेतराभाव कहते हैं। दो पदार्थ अभिन्न अर्थात् एकसत्ताक तो उत्पन्न होते ही नहीं है / जितने पदार्थ हैं सब अपनी-अपनी धारासे बदलते हुए स्वरूपस्थ है। दो पदार्थोंके स्वरूपका प्रतिनियत होना ही एकका दूसरेमें अभाव है, जो तत्-तत् पदार्थके स्वरूप ही होता है, भिन्न पदार्थ नहीं है / भिन्न अभावमें तो जैन भी यही दूषण देते हैं। द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तुमें कालक्रमसे होनेवाली अनेक पर्यायें परस्पर उपादानोपादेयरूपसे जो अनाद्यनन्त बहती हैं, कभी भी उच्छिन्न नहीं होती और न दूसरी धारासे संक्रान्त होती हैं, इसीको ऊर्ध्वतासामान्य द्रव्य या ध्रौव्य कहते हैं / अव्यभिचारी उपादान-उपादेयभावका नियामक यही होता है, अन्यथा सन्तानान्त१. "तेन योऽपि दिगम्बरो मन्यते-नास्माभिः घटपटादिष्वेकं सामान्यमिष्यते, तेषामेकान्त भेदात्, किन्त्वपरापरेण पर्यायेणावस्थासंशितेन परिणामि द्रव्यम्, एतदेव च सर्वपर्यानुयायित्वात् सामान्यमुच्यते / तेन युगपदुत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् इति वस्तुनो लक्षणमिति / तदाह-घटमौलिसुवर्णार्थी''सोऽप्यत्र निराकृत एव द्रष्टव्यः, तद्वति सामान्यविशेषवति वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने अत्यन्तभेदभेदौ स्याताम् अथ सामान्यविशेषयोः कथञ्चिभेद इष्यते। अत्राप्याह-अन्योन्यमित्यादि / सदृशासदृशात्मनोः सामान्यविशेषयोः यदि कथञ्चिदन्योन्यं परस्परं भेदः तदैकान्तेन तयो द एव स्यात्.. दिगम्बरस्यापि तद्वति वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने अत्यन्तभेदाभेदौ स्याताम् / 'मिथ्यावाद एव स्याद्वादः // " -प्र० वा० स्ववृ० टी० पृ० 332-42 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org