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________________ नय-विचार 359 लक्षणाभास हैं, उनका परभाव कहकर निषेध कर दिया है / इसी दृष्टिसे निश्चयनयको परमार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ भी कहा है। अभूतार्थका यह अर्थ नहीं है कि आत्मामें रागादि है ही नहीं, किन्तु जिस त्रिकालव्यापी द्रव्यरूप चित्को हम लक्षण बना रहे हैं उसमें इन्हें शामिल नहीं किया जा सकता। वर्णादि और रागादिको व्यवहारनयका विषय कहकर एक ही झोंकमें निषेध कर देनेसे यह भ्रम सहजमें ही हो सकता है कि 'जिस प्रकार रूप, रस, गन्ध / आदि पुद्गलके धर्म हैं उसी तरह रागादि भी पुद्गलके ही धर्म होंगे, और पुद्गलनिमित्तक होनेसे इन्हें पुद्गलकी पर्याय कहा भी है।' इस भ्रमके निवारणके लिये निश्चयनयके दो भेद भी शास्त्रोंमें देखे जाते हैं'-एक शुद्धनिश्चयनय और दूसरा अशुद्धनिश्चयनय / शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिमें 'शुद्ध चित्' ही जीवका स्वरूप है / अशुद्ध निश्चयनय आत्माके अशुद्ध रागादिभावोंको भी जीवके ही कहता है, पुद्गलके नहीं। व्यवहारनय सद्भुत और असद्भूत दोनोंमें उपचरित और अनुपचरित अनेक प्रकारसे प्रवृत्ति करता है / समयसारके टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें वर्णादि और रागादिको व्यवहार और अशुद्धनिश्चयनयकी दृष्टिसे ही विचारनेका संकेत किया है। पंचाध्यायीका नय-विभाग : पंचाध्यायीकार अभेदग्राहीको द्रव्यार्थिक और निश्चयनय कहते हैं तथा किसी भी प्रकारके भेदको ग्रहण करनेवाले नयको पर्यायार्थिक और व्यवहारनय कहते हैं। इनके मतसे 3निश्चयनयके शुद्ध और अशुद्ध भेद करना ही गलत है। ये वस्तुके सद्भूत भेदको व्यवहारनयका ही विषय मानते हैं / अखण्ड वस्तुमें किसी भी प्रकारका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी दृष्टिसे होनेवाला भेद पर्यायार्थिक या व्यवहारनयका विषय होता है। इनकी दृष्टिमें समयसारगत परनिमित्तकव्यवहार ही नहीं; किन्तु स्वगत भेद भी व्यवहारनयकी सीमामें ही होता है / ४व्यवहारनयके दो भेद हैं-एक सद्भुत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूत व्यवहारनय / वस्तुमें अपने गुणोंकी दृष्टिसे भेद करना सद्भूत व्यवहार है। अन्य द्रव्यके गुणोंकी बलपूर्वक अन्यत्र योजना करना असद्भुत व्यवहार है। जैसे वर्णादिवाले मूर्त पुद्गलकर्मद्रव्यके संयोगसे होनेवाले क्रोधादि मूर्तभावोंको जीवके 1. देखी,-द्रव्यसंग्रह गा० 4 / 2. 'अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षया आभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव इति व्याख्यानं निश्चय व्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र शातव्यम् ।'-समयसार तात्पर्य वृत्ति गा० 73 / 3. पंचाध्यायो 11656-61 / 4. पंचाध्यायो 1525 से। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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