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________________ 354 जैनदर्शन उस एक 'चित्' का ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपसे विभाजन या उसका विशेषरूपसे कथन करना भी एक प्रकारका व्यवहार है, वह केवल समझने-समझानेके लिये है / आप ज्ञानको या दर्शनको या चारित्रको भी शुद्ध आत्माका असाधारण लक्षण नहीं कह सकते; क्योंकि ये सब उस 'चित्' के अंश हैं और उस अखंड तत्त्वको खंड-खंड करनेवाले विशेष हैं। वह 'चित' तो इन विशेषोंसे परे ‘अविशेष' है, 'अनन्य' है और 'नियत' है। आचार्य आत्मविश्वाससे कहते हैं कि 'जिसने इसको जान लिया उसने समस्त जिनशासनको जान लिया।' निश्चयका वर्णन असाधारण लक्षणका कथन है : दर्शनशास्त्रमें आत्मभूत लक्षण उस असाधारण धर्मको कहते हैं जो समस्त लक्ष्योंमें व्याप्त हो तथा अलक्ष्यमें बिलकुल न पाया जाय। जो लक्षण लक्ष्यमें नहीं पाया जाता वह असम्भवि लक्षणाभास कहलाता है, जो लक्ष्य और अलक्ष्य दोनोमें पाया जाता है वह अतिव्याप्त लक्षणाभास है और जो लक्ष्यके एक देशमें रहता है वह अव्याप्त लक्षणाभास कहा जाता है। आत्मद्रव्यका आत्मभूत लक्षण करते समय हम इन तीनों दोषों का परिहार करके जब निर्दोष लक्षण खोजते हैं तो केवल 'चित्' के सिवाय दूसरा कोई पकड़में नहीं आता। वर्णादि तो स्पष्टतया पुद्गलके धर्म हैं, अतः वर्णादि तो जीवमें असंभव हैं / रागादि विभावपर्यायें तथा केवलज्ञानादि स्वभावपर्यायें, जिनमें आत्मा स्वयं उपादान होता है, समस्त आत्माओंमें व्यापक नहीं होनेसे अव्याप्त हैं। अतः केवल 'चित्' ही ऐसा स्वरूप है, जो पुद्गलादि अलक्ष्योंमें नहीं पाया जाता और लक्ष्यभूत सभी आत्माओंमें अनाद्यनन्त व्याप्त रहता है। इसलिये 'चित्' ही आत्म द्रव्यका स्वरूपभूत लक्षण हो सकती है। यद्यपि यही 'चित्' प्रमत्त, अप्रमत्त, नर, नारकादि सभी अवस्थाओंको प्राप्त होती है, पर निश्चयसे वे पर्यायें आत्माका व्यापक लक्षण नहीं बन सकतीं। इसी व्याप्यव्यापकभावको लक्ष्यमें रख कर अनेक अशुद्ध अवस्थाओंमें भी शुद्ध आत्मद्रव्यको पहिचान करानेके लिये आचार्यने शुद्ध नयका अवलम्बन किया है। इसीलिये 'शुद्ध चित्' का सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि रूपसे विभाग भी उन्हें इष्ट नहीं है। वे एक अनिर्वचनीय अखण्ड चितको ही आत्मद्रव्यके स्थानमें रखते हैं / आचार्यने इस लक्षणभूत 'चित्' के सिवाय जितने भी वर्णादि और रागादि 1. 'ववहारेणवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं / / ण वि णाणं च चरित्तं ण दंसणं जाणगो शुद्धो // 7 // '. -समयसार। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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