SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन करनेके लिये 'स्याद्वाद' रूप वचनपद्धतिका उपदेश दिया गया। इससे प्रत्येक वाक्य अपनेमें सापेक्ष रहकर स्ववाच्यको प्रधानता देता हुआ भी अन्य अंशोंका लोप नहीं करता, उनका तिरस्कार नहीं करता और उनकी सत्तासे इनकार नहीं करता। वह उनका गौण अस्तित्व स्वीकार करता है। इसीलिये इन धर्मतीर्थकरोंकी 'स्याद्वादी' के रूपमें स्तुति की जाती है, जो इनके तत्त्वस्वरूपके प्रकाशनकी विशिष्ट प्रणालीका वर्णन है। ___ इनने प्रमेयका स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस प्रकार त्रिलक्षण बताया है। प्रत्येक सत्, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, त्रिलक्षणयुक्त परिणामी है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण अपनी पूर्वपर्यायको छोड़ता हुआ नवीन उत्तरपर्यायको धारण करता जाता है और इस अनादिप्रवाहको अनन्तकाल तक चलाता जाता है, कभी भी समाप्त नहीं होता। तात्पर्य यह कि तीर्थंकर ऋषभदेवने अहिंसा मूलधर्मके साथ ही साथ त्रिलक्षण प्रमेय, अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद भाषाका भी उपदेश दिया। नय, सप्तभंगी आदि इन्हीके परिवारभूत हैं। अतः जैनदर्शनके आधारभूत मुख्य मुद्दे हैं-त्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद । आत्माकी स्वतन्त्र सत्ता तो एक ऐसी आधारभूत शिला है जिसके माने बिना बन्धमोक्षकी प्रक्रिया ही नहीं बन सकती । प्रमेयका षट् द्रव्य, सात तत्त्व आदिके रूपमें विवेचन तो विवरणकी बात है। भगवान् ऋषभदेवके बाद अजितनाथ आदि २३ तीर्थंकर और हुए हैं और इन सब तीर्थंकरोंने अपने-अपने युगमें इसी सत्यका उद्घाटन किया है। तीर्थकर नेमिनाथ : बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ नारायण कृष्णके चचेरे भाई थे। इनका जन्मस्थान द्वारिका था और पिता थे महाराज समुद्रविजय । जब इनके विवाहका जुलूस नगरमें घूम रहा था और युवक कुमार नेमिनाथ अपनी भावी संगिनी राजुलकी सुखसुषमाके स्वप्नमें झूमते हुए दूल्हा बनकर रथमें सवार थे उसी समय बारातमें आये हुए मांसाहारी राजाओंके स्वागतार्थ इकठ्ठ किये गये विविध पशुओंकी भयङ्कर चीत्कार कानोंमें पड़ी। इस एक चीत्कारने नेमिनाथके हृदयमें अहिंसाका सोता फोड़ दिया और उन दयामूर्तिने उसी समय रथसे उतरकर उन पशुओंके बन्धन अपने हाथों खोले । विवाहकी वेषभूषा और विलासके स्वप्नोंको १. "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः। ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥"-लघी० श्लो०१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy