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________________ सामान्यावलोकन में जैनधर्मके संस्थापकके रूपमें ऋषभदेवका उल्लेख होना और आठवें अवतारके रूपमें उनका स्वीकार किया जाना इस बातका साक्षी है कि ऋषभके जैनधर्मके संस्थापक होनेकी अनुश्रुति निर्मूल नहीं है । बौद्धदर्शनके ग्रन्थोंमें दृष्टान्ताभास या पूर्वपक्ष के रूपमें जैनधर्मके प्रवर्तक और स्याद्वादके उपदेशकके रूपमें ऋषभ और वर्धमानका ही नामोल्लेख पाया जाता है । धर्मोत्तर आचार्य तो ऋषभ, वर्धमानादिको दिगम्बरोंका शास्ता लिखते हैं । इन्होंने मूल अहिंसा धर्मका आद्य उपदेश दिया और इसी अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा के लिये उसके आधारभूत तत्त्वज्ञानका भी निरूपण किया । इनने समस्त आत्माओंको स्वतन्त्र, परिपूर्ण और अखण्ड मौलिक द्रव्य मानकर अपनी तरह समस्त जगत्के प्राणियोंको जीवित रहनेके समान अधिकारको स्वीकार किया और अहिंसा के सर्वोदयी स्वरूपकी संजीवनी जगत्को दी । विचार-क्षेत्रमें अहिंसा के मानस रूपकी प्रतिष्ठा स्थापित करनेके लिये आदिप्रभुने जगत्के अनेकान्त स्वरूपका उपदेश दिया। उनने बताया कि विश्वका प्रत्येक जड़-चेतन, अणु-परमाणु और जीवराशि अनन्त गुण - पर्यायोंका आकर है । उसके विराट् रूपको पूर्ण ज्ञान स्पर्श भी कर ले, पर वह शब्दों के द्वारा कहा नहीं जा सकता । वह अनन्त ही दृष्टिकोणोंसे अनन्त रूपमें देखा जाता और कहा जाता है । अतः इस अनेकान्तमहासागरको शान्ति और गम्भीतासे देखो । दूसरेके दृष्टिकोणोंका भी आदर करो; क्योंकि वे भी तुम्हारी ही तरह वस्तुके स्वरूपांशोंको ग्रहण करनेवाले हैं । अनेकान्तदर्शन वस्तुविचारके क्षेत्रमें दृष्टिकी एकाङ्गिता और संकुचिततः से होनेवाले मतभेदोंको उखाड़कर मानस - समताकी सृष्टि करता और वीतराग चित्त की सृष्टि के लिए उर्वर भूमि बनाता है । मानस अहिंसा के लिए जहाँ विचारशुद्धि करनेवाले अनेकान्तदर्शनकी उपयोगिता है वहाँ वचनकी निर्दोष पद्धति भी उपादेय है, क्योंकि अनेकान्तको व्यक्त करनेके लिये 'ऐसा ही है' इस प्रकारकी अवधारिणी भाषा माध्यम नहीं बन सकती । इसलिये उस परम अनेकान्त तत्त्वका प्रतिपादन है १. खंडगिरि - उदयगिरिकी हाथीगुफाके २१०० वर्ष पुराने लेखसे ऋषभदेवकी प्रतिमाकी कुल क्रमागतता और प्राचीनता स्पष्ट है। यह लेख कलिंगाधिपति खारवेलने लिखाया था । इस प्रतिमाको नन्द ले गया था। पीछे खारवेलने इसे नन्दके ३०० वर्ष बाद पुष्यमित्रसे प्राप्त किया था । २. देखो, न्यायबि० १।१४२-५१ | तत्त्वसंग्रह ( स्याद्वादपरीक्षा ) । ३. “यथा ऋषभो वर्धमानश्च तावादौ यस्य स ऋषभवर्धमानादिः दिगम्बराणां शास्ता सर्वंश आप्तश्चेति । " न्यायबि० टीका ३ । १४२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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