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________________ प्रमाणमीमांसा 201 प्रमाणके भेद : प्राचीन कालसे प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूपसे स्वीकृत चले आ रहे हैं। आगमिक परिभाषामें आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं, और जिन ज्ञानोंमें इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि परसाधनोंकी अपेक्षा होती है के परोक्ष हैं। प्रत्यक्ष और परोक्षकी यह परिभाषा जैन परम्पराकी अपनी है। उसमें प्रत्येक वस्तु अपने परिणमनमें स्वयं उपादान होती है। जितने परनिमित्तक परिणमन हैं, वे सब व्यवहारमूलक हैं। जो मात्र स्वजन्य हैं, वे ही परमार्थ हैं और निश्चयनयके विषय हैं। प्रत्यक्ष और परोक्षके लक्षण और विभाजनमें भी यही दृष्टि काम कर रही है और उसके निर्वाहके लिए 'अक्ष' शब्दका अर्थ आत्मा किया गया है। प्रत्यक्ष शब्दका प्रयोग जो लोकमें इन्द्रियप्रत्यक्षके अर्थमें देखा जाता है उसे सांव्यवहारिक संज्ञा दी गई है, यद्यपि आगमिक परमार्थ व्याख्याके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होनेसे परोक्ष है; किन्तु लोकव्यवहारकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। जैन दृष्टिमें उपादान-योग्यतापर ही विशेष भार दिया गया है। निमित्तसे यद्यपि उपादान-योग्यता विकसित होती है, परन्तु निमित्तसापेक्ष परिणमन उत्कृष्ट और शुद्ध नहीं माने जाते। इसीलिए प्रत्यक्ष जैसे उत्कृष्ट ज्ञानमें उपादान आत्माकी ही अपेक्षा मानी है, इन्द्रिय और मन जैसे निकटतम साधनोंकी नहीं / आत्ममात्र-सापेक्षता प्रत्यक्षव्यवहारका कारण है और इन्द्रियमनोजन्यता परोक्षव्यवहारकी नियामिका है। यह जैन दृष्टिका अपना आध्यात्मिक निरूपण है / तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान सर्वथा स्वावलम्बी है. जिसमें बाह्य साधनोंकी आवश्यकता नहीं है वही ज्ञान प्रत्यक्ष कहलानेके योग्य है, और जिसमें इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि साधनोंकी आवश्यकता होती है, वे ज्ञान परोक्ष हैं / इस तरह मूलमें प्रमाणके दो भेद होते हैं-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष / प्रत्यक्ष प्रमाण : सिद्धसेन दिवाकर ने प्रत्यक्षका लक्षण 'अपरोक्षरूपसे अर्थका ग्रहण करना प्रत्यक्ष है' यह किया है। इस लक्षणमें प्रत्यक्षका स्वरूप तब तक समझमें नहीं आता, जब तक कि परोक्षका स्वरूप न समझ लिया जाय / अकलंकदेवने 'न्याय१. 'जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु / जं केवलेण णादं हवदि हु जीवेण पञ्चक्खं ॥'-प्रवचनसार गा० 58 / 2. 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा' सर्वार्थसि० पृ० 56 / 3. 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं शानमीदृशम् / प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया // न्यायावतार श्लो० 4 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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