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________________ 196 जैनदर्शन प्रमाणका फल है, जब कि ज्ञान करणसाधन है और स्वयं करणभूत-प्रमाण है। अवशिष्ट सारी सामग्री का उपयोग इस प्रमाणभूत ज्ञानको उत्पन्न करनेमें होता है / यानी सामग्री ज्ञानको उत्पन्न करती है और ज्ञान जानता है। यदि ज्ञानकी तरह शेष सामग्री भी स्वभावतः जाननेवाली होती तो उसे भी ज्ञानके साथ 'साधकतम' पदपर बैठाया जा सकता था और प्रमाणसंज्ञा दी जा सकती थी। वह सामग्रीयुद्धवीरकी जननी हो सकती है, स्वयं योद्धा नहीं। सीधी-सी बात है कि प्रमिति चूंकि चेतनात्मक है और चेतनका धर्म है, अतः उस चेतन क्रियाका साधकतम चेतनधर्म ही हो सकता है / वह अज्ञानको हटानेवाली है, अतः उसका साधकतम अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही हो सकता है, अज्ञान नहीं। इन्द्रियव्यापार भी प्रमाण नहीं : इसी तरह' सांख्यसम्मत इन्द्रियोंका व्यापार भी प्रमाण नहीं माना जा सकता; क्योंकि व्यापार भी इन्द्रियोंकी तरह अचेतन और अज्ञानरूप ही होगा, ज्ञानात्मक नहीं / और अज्ञानरूप व्यापार प्रमामें साधकतम न होनेसे प्रमाण नहीं हो सकता, अतः सम्यग्ज्ञान ही एकान्तरूपसे प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं / प्रामाण्य-विचार : प्रमाण जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है उसका उसी रूपमें प्राप्त होना यानी प्रतिभात विषयका अव्यभिचारी होना प्रामाण्य कहलाता है। यह प्रमाणका धर्म है। इसकी उत्पत्ति उन्हीं कारणोंसे होती है जिन कारणोंसे प्रमाण उत्पन्न होता है। अप्रामाण्य भी इसी तरह अप्रमाणके कारणोंसे ही पैदा होता है / प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, उसकी उत्पत्ति परसे ही होती है। २ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः और अनभ्यासदशामें किसी स्वतः प्रमाणभूत् ज्ञानान्तरसे यानी परतः हुआ करती है। जैसे जिन स्थानोंका हमें परिचय है उन जलाशयादिमें होनेवाला जलज्ञान या मरीचिज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता बता देता है, किन्तु अपरिचित स्थानोंमें होनेवाले ज्ञानकी प्रमाणताका ज्ञान पनहारियोंका पानी भरकर लाना, मेंढकोंका टर्राना या कमलकी गन्धका आना आदि जलके अविनाभावी स्वतः प्रमाणभूत ज्ञानोंसे ही होता है। इसी तरह जिस वक्ताके गुण-दोषोंका हमें परिचय है उसके वचनोंकी प्रमाणता और अप्रमाणला तो हम स्वतः जान लेते हैं, पर अन्यके वचनोंकी प्रमाणताके लिए हमें दूसरे संवाद आदि कारणोंकी अपेक्षा होती है। 1. देखो, योगद० व्यासभा० पृ० 27 / 2. 'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ।'-परीक्षामुख 1 / 13 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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