________________ तत्त्व-निरूपण 181 भिन्न हो जाते हैं, उनका अत्यन्त विनाश नहीं होता' / किसी भी सत्का अत्यन्त विनाश न कभी हुआ है और न होगा। पर्यायान्तर होना ही 'नाश' कहा जाता है। जो कर्मपुद्गल अमुक आत्माके साथ संयुक्त होनेके कारण उस आत्माके गुणोंका घात करनेकी वजहसे उसके लिए कर्मत्व पर्यायको धारण किये थे, मोक्षमें उनकी कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जातो है / यानी जिस प्रकार आत्मा कर्मबन्धनसे छूट कर शुद्ध सिद्ध हो जाता है उसी तरह कर्मपुद्गल भी अपनी कर्मत्व पर्यायसे उस समय मुक्त हो जाते हैं / यों तो सिद्ध स्थानपर रहनेवाली आत्माओंके साथ पुद्गलों या स्कन्धोंका संयोग सम्बन्ध होता रहता है, पर उन पुद्गलोंकी उनके प्रति कर्मत्व पर्याय नहीं होती, अतः वह बन्ध नहीं कहा जा सकता। अतः जैन परम्परामें आत्मा और कर्मपुद्गलका सम्बन्ध छुट जाना ही मोक्ष है। इस मोक्षमें दोनों द्रव्य अपने निज स्वरूपमें बने रहते हैं, न तो आत्मा दीपककी तरह बुझ जाता है और न कर्मपुद्गलका ही सर्वथा समूल नाश होता है। दोनोंकी पर्यायान्तर हो जाती है / जीवकी शुद्ध दशा और पुद्गलकी यथासंभव शुद्ध या अशुद्ध कोई भी अवस्था हो जाती है। 5 संवर-तत्व : ___ संवर रोकनेको कहते हैं / सुरक्षाका नाम संवर है। जिन द्वारोंसे कर्मोका आस्रव होता था, उन द्वारोंका निरोध कर देना संवर कहलाता है / आस्रव योगसे होता है, अतः योगकी निवृत्ति ही मूलतः संवरके पदपर प्रतिष्ठित हो सकती है। किन्तु मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है / शारीरिक आवश्यकताओंको पूर्ति के लिये आहार करना, मलमूत्रका विसर्जन करना, चलनाफिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करना ही पड़ती हैं / अतः जितने अंशोंमें मन, वचन और कायकी क्रियाओंका निरोध है, उतने अंशको गुप्ति कहते हैं / गुप्ति अर्थात् रक्षा। मन, वचन और कायकी अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा करना / यह गुप्ति ही संवरणका साक्षात् कारण है / गुप्तिके अतिरिक्त समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदिसे भी संवर होता है। समिति आदिमें जितना निवृत्तिका अंश है उतना संवरका कारण होता है और प्रवृत्तिका अंश शुभ बन्धका हेतु होता है। समिति : समिति अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति, सावधानीसे कार्य करना। समिति पाँच प्रकारकी है। ईर्या समिति-चार हाथ आगे देखकर चलना / भाषा समितिहित-मित-प्रिय वचन बोलना। एषणा समिति-विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना। 2. जीवाद् विश्लेषणं भेदः सतो नात्यस्तसंक्षयः।" आप्तप० श्लो० 115 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org