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________________ तत्त्व-निरूपण 1533 द्वेष होते हैं, और ये राग-द्वेष ही समस्त संसार परम्पराके मूल स्रोत हैं। अतः इस सर्वानर्थमूल' आत्मदृष्टिका नाश कर नैरात्म्य-भावनासे दुःख-निरोध होता है / बुद्धका दृष्टिकोण: उपनिषद्का तत्त्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता है और आत्मदर्शनको ही मोक्षका परम साधन मानता है और मुमुक्षके लिए आत्मज्ञानको ही जीवनका सर्वोच्च साध्य समझता है, वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही संसारका मूल कारण माना है / आत्म दृष्टि, सत्त्वदृष्टि, सत्कायदृष्टि, ये सब मिथ्या दृष्टियाँ है / औपनिषद तत्त्वज्ञानकी ओटमें, याज्ञिक क्रियाकाण्डको जो प्रश्रय मिल रहा था उसीकी यह प्रतिक्रिया थी कि बुद्धको 'आत्मा' शब्दसे ही घृणा हो गई थी। आत्माको स्थिर मानकर उसे स्वर्गप्राप्ति आदिके प्रलोभनसे अनेक क्रूर यज्ञोंमें होनेवाली हिंसाके लिए उकसाया जाता था। इस शाश्वत आत्मवादसे ही राग और द्वेषकी अमरवेलें फैलती हैं। मजा तो यह है कि बुद्ध और उपनिषत्वादी दोनों ही राग, द्वेष और मोहका अभाव कर वीतरागता और वासनानिर्मुक्तिको अपना चरम लक्ष्य मानते थे, पर साधन दोनोंके इतने जुदे थे कि एक जिस आत्मदर्शनको मोक्षका कारण मानता था, दूसरा उसे संसारका मूलबीज / इसका एक कारण और भी था कि बुद्धका मानस दार्शनिककी अपेक्षा सन्त ही अधिक था। वे ऐसे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे, जिनका निर्णय न हो सके या जिनकी ओटमें मिथ्या धारणाओं और अन्धविश्वासोंकी सृष्टि होती हो / 'आत्मा' शब्द उन्हें ऐसा ही लगा। बुद्धको नैरात्म्य-भावनाका उद्देश्य 'बोधिचर्य्यावतार' (पृ० 449 ) में इस प्रकार बताया है "यतस्ततो वाऽस्तु भयं यद्यहं नाम किंचन / अहमेव न किञ्चिच्चेत् कस्य भीतिर्भविष्यति // " अर्थात्-यदि 'मैं' नामका कोई पदार्थ होता तो उसे इससे या उससे भय हो सकता था, परन्तु जब 'मैं' ही नहीं है, तब भय किसे होगा ? / - बुद्ध जिस प्रकार इस 'शश्वत आत्मवाद' रूपी एक अन्तको खतरा मानते थे, उसी तरह वे भौतिकवादको भी दूसरा अन्त समझकर उसे खतरा ही मानते थे। उन्होंने न तो भौतिकवादियोंके उच्छेदवादको ही माना और न उपनिषद्वादियोंके 1. "तस्मादनादिसन्तानतुल्यजातीयबीजिकाम् / उत्खातमूलां कुरुत सत्त्वदृष्टिं मुमुक्षवः // " -प्रमाणवा० 11258 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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