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________________ 152 जैनदर्शन है कि 'जैसे किसी व्यक्तिको विषसे बुझा हुआ तीर लगा हो और जब बन्धुजन उस तीरको निकालनेके लिए विषवैद्यको बुलाते हैं, तो उस समय उसकी यह मीमांसा करना जिस प्रकार निरर्थक है कि 'यह तीर किस लोहेसे बना है ? किसने इसे बनाया ? कब बनाया ? यह कबतक स्थिर रहेगा? यह विषवैद्य किस गोत्रका है ?' उसी तरह आत्माकी नित्यता और परलोक आदिका विचार निरर्थक है, वह न तो बोधिके लिए और न निर्वाणके लिए ही उपयोगी है। ___इन आर्यसत्योंका वर्णन इस प्रकार है / दुःख-सत्य-जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, शोक, परिवेदन, विकलता, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इष्टाप्राप्ति आदि सभी दुःख हैं। संक्षेपमें पाँचों उपादान स्कन्ध ही दुःखरूप हैं / समुदय-सत्य-कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तष्णा दुःखको उत्पन्न करनेके कारण समुदय कही जाती है। जितने इन्द्रियोंके प्रिय विषय हैं, इष्ट रूपादि हैं, इनका वियोग न हो, वे सदा बने रहें, इस तरह उनसे संयोगके लिए चित्तको अभिनन्दिनी वृत्तिको तृष्णा कहते हैं / यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है / निरोध-सत्य-तृष्णाके अत्यन्त निरोध या विनाशको निरोधआर्यसत्य कहते हैं। दुःख-निरोधका मार्ग है-आष्टांगिक मार्ग / सम्यगदृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यकवचन, सम्यक्कर्म, सम्यक् आजीवन, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक् समाधि / नैरात्म्य-भावना ही मुख्यरूपसे मार्ग हैं / बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्त्वदृष्टिको ही मिथ्यादर्शन कहा है। उनका कहना है कि एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति स्नेहवश उसके सुखमें तृष्णा करता है। तृष्णाके कारण उसे दोष नहीं दिखाई देते और गुणदर्शन कर पुनः तृष्णावश सुखसाधनोंमें ममत्व करता है, उन्हें ग्रहण करता है। तात्पर्य यह कि जब तक 'आत्माभिनिवेश' है तब तक वह संसारमें रुलता है। इस एक आत्माके माननेसे वह अपनेको स्व और अन्यको पर समझता है। स्व-परविभागसे राग और 1. “यः पश्यत्यामानं तत्रास्याहमिति शाश्वतः स्नेहः / स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते // गुणदशी परितृष्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते / तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत्स संसारे // आत्मनि सति परसंशा स्वपरविभागात् परिग्रहद्वेषो / अनयोः सम्प्रतिबद्धाः सर्वे दोषाः प्रजायन्ते // " -अ० वा० 12216-21 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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