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जैनदर्शन
चाहिए । 'कर्म' कर्म' इस प्रत्ययके कारण कर्म एक स्वतन्त्र पदार्थ माना गया है । 'अनुगताकार, प्रत्ययसे पर और अपर रूपसे अनेक प्रकारके सामान्य माने गये हैं । 'अपृथक्सिद्ध ' पदार्थोंके सम्बन्ध स्थापनके लिए 'समवाय' की आवश्यकता हुई । नित्य परमाणुओंमें, शुद्ध आत्माओंमें, तथा मुक्त आत्माओं के मनोंमें परस्पर विलक्षणताका बोध कराने के लिए प्रत्येक नित्य द्रव्यपर एक एक विशेष पदार्थ माना गया है । कार्योत्पत्तिके पहले वस्तुके अभावका नाम प्रागभाव है । उत्पत्तिके बाद होनेवाला विनाश प्रध्वंसाभाव है । परस्पर पदार्थों के स्वरूपका अभाव अन्योन्याभाव और त्रैकालिक संसर्गका निषेध करनेवाला अत्यन्ताभाव होता है । इस तरह जितने प्रकार के प्रत्यय पदार्थोंमें होते हैं, उतने प्रकार के पदार्थ वैशेषिकने माने हैं । वैशेषिकको 'सम्प्रत्ययोपाध्याय' कहा गया है । उसका यही अर्थ है कि वैशेषिक प्रत्यय आधारसे पदार्थकी कल्पना करनेवाला उपाध्याय है ।
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परन्तु विचार कर देखा जाय तो गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सब द्रव्यकी पर्यायें ही हैं । द्रव्यके स्वरूपसे बाहर गुणादिकी कोई सत्ता नहीं है । द्रव्यका लक्षण है' गुणपर्यायवाला होना । ज्ञानादिगुणोंका आत्मासे तथा रूपादि गुणोंका पुद्गलसे पृथक् अस्तित्व न तो देखा ही जाता है, और न युक्तिसिद्ध ही है । गुण और गुणीको, क्रिया और क्रियावान्को, सामान्य और सामान्यवान्को, विशेष और नित्य द्रव्योंको स्वयं वैशेषिक अयुतसिद्ध मानते हैं, अर्थात् उक्त पदार्थ परस्पर पृथक् नहीं किये जा सकते । गुण आदिको छोड़कर द्रव्यकी अपनी पृथक् सत्ता क्या है ? इसी तरह द्रव्यके बिना गुणादि निराधार कहाँ रहेंगे ? इनका द्रव्यके साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है । इसीलिए कहीं " गुणसन्द्रावो द्रव्यम्" यह भी द्रव्यका लक्षण मिलता है ।
एक ही द्रव्य जिस प्रकार अनेक गुणोंका अखण्ड पिण्ड है, उसी तरह जो द्रव्य सक्रिय हैं उनमें होनेवाली क्रिया भी उसी द्रव्यकी पर्याय है, स्वतंत्र नहीं है । क्रिया या कर्म क्रियावान् से भिन्न अपना अस्तित्व नहीं रखते ।
इसी तरह पृथ्वीत्वादि भिन्न द्रव्यवर्ती सामान्य सदृशपरिणामरूप ही हैं । कोई एक, नित्य और व्यापक सामान्य अनेक द्रव्योंमें मोतियों में सूतकी तरह पिरोया हुआ नहीं है । जिन द्रव्यों में जिस रूपसे सादृश्य प्रतीत होता है, उन द्रव्यों का वह सामान्य मान लिया जाता है । वह केवल बुद्धिकल्पित भी नहीं
१. “ गुणपर्ययवद्रव्यम् । ” – तत्त्वार्थ सूत्र ५ । ३८ ।
२. " अन्वर्थं खल्वपि निर्वचनं गुणसन्द्रावो द्रव्यमिति । "
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- पात० महाभाष्य ५ । १ । ११९ ।
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