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द्रव्य विवेचन
वैशेषिककी द्रव्यमान्यताका विचार :
वैशेषिक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य मानते हैं । इनमें पृथ्वी आदिक चार द्रव्य तो 'रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्व' इस सामान्य लक्षणसे युक्त होनेके कारण पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भूत हैं । दिशाका आकाशमें अन्तर्भाव होता है । मन स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, वह यथासम्भव जीव और पुद्गलकी ही पर्याय है । मन दो प्रकारका होता है - एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन । द्रव्यमन आत्माको विचार करने में सहायता देनेवाले पुद्गल-परमाणुओंका स्कन्ध है । ' शरीरके जिस जिस भाग में आत्माका उपयोग जाता है; वहाँ-वहाँ के शरीरके परमाणु भी तत्काल मनरूपसे परिणत हो जाते हैं । अथवा, हृदय-प्रदेशमें अष्टदल कमलके आकारका द्रव्यमन होता है, जो हिताहितके विचार आत्माका उपकरण बनता है । विचार-शक्ति आत्माकी है । अतः भावमन आत्मरूप ही होता है । जिस प्रकार भावेन्द्रियाँ आत्माकी ही विशेष शक्तियाँ हैं, उसी तरह भावमन भी नोइन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाली आत्माकी एक विशेष शक्ति है; अतिरिक्त द्रव्य नहीं ।
बौद्ध परंपरामें हृदय-वस्तुको एक पृथक् धातु माना है, जो कि द्रव्यमनका स्थानीय हो सकता है । 'अभिधर्मकोश' में छह ज्ञानोंके समनन्तर कारणभूत पूर्वज्ञानको मन कहा है । यह भावमनका स्थान ग्रहण कर सकता है, क्योंकि चेतनात्मक है । इन्द्रियाँ मनकी सहायता के बिना अपने विषयोंका ज्ञान नहीं कर सकतीं, परन्तु मन अकेला ही गुणदोषविचार आदि व्यापार कर सकता है । मनका कोई निश्चित विषय नहीं है, अतः वह सर्वविषयक होता है ।
गुण आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं :
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वैशेषिकने द्रव्य के सिवाय गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये छह पदार्थ और माने हैं । वैशेषिककी मान्यता प्रत्ययके आधार से चलती है । चूंकि 'गुणः गुण:' इस प्रकारका प्रत्यय होता है, अतः गुण एक पदार्थ होना १. " द्रव्यमनश्च ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमलाभप्रत्ययाः गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गलाः वीर्यविशेष | वर्जनसमर्थाः मनरत्वेन परिणता इति कृत्वा पौद्गलिकम् '' मनस्त्वेन हि परिणताः पुद्गलाः गुणदोषविचारस्मरणादिकार्यं कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते । ” तत्त्वार्थवा० ५ । १६ । २. " ताम्रपर्णीया अपि हृदयवस्तु मनोविज्ञानधातोराश्रयं कल्पयन्ति ।”
— स्फुटार्थ अभि० पृ० ४९ ।
३. " षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः । ” – अभिधर्मकोश १ । १७ ।
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